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Sunday, April 22, 2007

मेरी एक अप्रकाशित कविता, आप भी पढ़ें...

सालों बाद कोई कविता लिख रहा हूं... यही कोई दस साल बाद... मन के दर्द सहते विचार उद्धेलित होकर जमा हो गए थे, उन्ही के बिखराव को शायद कविता कहने की यह भूल भी हो सकती है...
जो भी है, प्रस्तुत है-


मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।।

जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!

7 comments:

सुजाता said...

कविता अच्छी है ।
फोटू बदल दिया है ।अच्छा है यह भी ।
मॉडलिंग वॉडलिंग करते हो कया?

Unknown said...

सुंदर!!

Anonymous said...

बैठे ठाले
मजे की लिख डाले

Anonymous said...

बैठे ठाले
मजे की लिख डाले

रज़िया "राज़" said...

मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
वाह ! सुंदर अभिव्यक्ति!!!
थोडी-सी ग़लतफ़्हेमी ज़िंदगी का मोड बदल देती है।
अच्छी/सुंदर कविता।

फ़िरदौस ख़ान said...

आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

bahut sundar...

बालमुकुन्द अग्रवाल,पेंड्रा said...

"अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।"

दर्शन और काव्य सौष्ठव का अनुपम समावेश.