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Friday, August 6, 2010

कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?

दिन में कई बार ऐसा लगता है जैसे रे-बैन का मेरे वो चश्मा मुझे याद कर रहा होगा। रो रहा होगा। वो ना भी रो रहा हो लेकिन उसकी याद में मेरी आंखें ज़रूर नम हो जाती हैं। हंसने की बात नहीं है। कुछ चीज़े बेजान होती हैं, लेकिन उनमें जान बसने लगती है। मेरे साथ जनपथ मार्केट में जो हादसा हुआ उसमें वो चश्मा भी चला गया। कोई उचक्का, वर्दीवाले गुंड़ों के सामने से उसे ले भागा। मेरा वो प्यारा रे-बैन या तो उस मुस्टंडे की नाक पर सजा होगा या मुमकिन है उसने अगले ही पल अगले ही चौराहे पर उसे 500 या 1000 रुपए में बेच खाया हो। कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?


मेरे लिए वो सिर्फ एक चश्मा नहीं था। जब पहली बार 6290/- का ख़रीदकर मैंने उसे पहना था तो एक तरह से बरसों पुराना एक ख़्वाब मेरी आंखों के सामने तामीर हो चुका था। बरसों की ज़िद थी कि चश्मा पहनूंगा तो रे-बैन का। शोरूम पर जाता था, तरह-तरह के चश्में लगाकर आईने में देखता था और क़ीमत देखकर वापस लौट आता था। हमेशा ही रे-बैन का चश्मा मेरे लिए बहुत मंहगा होता था। और मेरे लिए ही क्यों मेरे जैसे मध्यमवर्गीय आदमी के लिए रे-बैन मंहगा ही तो है। कभी पैसे होते भी थे तो रे-बैन के चश्मे की ख़रीदारी फ़िज़ूलखर्ची लगती। उससे भी ज़्यादा कई अहम काम सामने मुंह बाए खड़े होते। कभी चश्मे के लिए जमा पैसे LIC की किस्त में मिलाने पड़ते, कभी बीमारी-हारी में खर्च हो जाते, कभी कहीं तो कभी कहीं....। रे-बैन का चश्मा खरीदना हर बार मंहगा शौक़ मानकर ख़ारिज कर देना पड़ता था।

छोटी-मोटी कई ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया कि, नहीं इसके बिना भी काम चल जाएगा.... इस बार बारी रे-बैन की। लेकिन हर बार मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
ना जाने कब-कब और कहां-कहां उसकी कमी महसूस होती थी।

फिर वो दिन भी आया जब मैंने अपना पहला रे-बैन ख़रीदा। आज से कोई एक साल पहले। या शायद एक साल भी नहीं हुआ होगा उसे। सबसे पहले उसे घर लाया तो उसके चारों ओर सफ़ेद कागज़ लगा कर उसकी फ़ोटो खींची (वो फ़ोटो यहां लगा रहा हूं)। मेरा रे-बैन मेरे लिए बड़े शान की बात थी। किसी मुक़ाम की तरह ही संघर्षों से पाया था मैंने उसे। रोज़ नियम से उसकी देखभाल करना, ऑफ़िस जाते वक़्त करीने से उसे साफ करके पहनना और ऑफ़िस पहुंचकर सावधानी से उसे साफ़ करके केस में वापस रखना, कहीं लाते-ले जाते समय बच्चों की तरह उसकी फ़िक्र करना, रह-रहकर सबकुछ कई बार याद आ जाता है दिन में।

अब पता नहीं एक बार फिर कब तक ले पाऊंगा रे-बैन। लेकिन लूंगा ज़रूर। ज़िद का पक्का हूं मैं। और जब तक नहीं ले पाऊंगा तब तक क्या करूंगा....? तब तक मेरी एक मित्र का गिफ़्ट किया हुआ ‘Police’ का ग्ल्येर पहनूंगा। मेरे लिए खास UK से लाईं थीं वो। थैंक्स अनु।

रे-बैन का दूसरा चश्मा ले भी लूंगा तो पहले वाले को कभी नहीं भूल पाऊंगा। उसकी याद करके अब भी मन भारी है और रहेगा भी।

कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?

10 comments:

शिवम् मिश्रा said...

मतलब के हम नहीं सुधरेगे types हो ................!! इतना सब कुछ होने के बाद भी रे बेन के लिए रो रहे हो ................. यार एक गया है तो दूसरा आ जायेगा पर अगर उस दिन आप को कुछ हो गया होता तो ..............ज़रा सोचियेगा !!

anoop joshi said...

क्या 'रे मन' था बैचैन तू "रे बैन' के लिए..........

पंकज मिश्रा said...

देखिए साहब अब बहुत हो गया। क्या किसी निर्जीव चीज के लिए इतना बेचैन हुए जा रहे हैं। कहीं उस कंपनी ने आपको प्रचार के लिए पैसे तो नहीं दिए जो आप व्याकुल हुए जा रहे हैं। अगली पोस्ट कृपया कर इस विषय पर न लिखिएगा। ये बताइए आपकी तबियत कैसी है? चोट बगैरा ठीक है ना?

honesty project democracy said...

लगता है इस चश्मे से आपका बेहद हार्दिक जुड़ाव है ,उसका कदापि भला नहीं होगा जिसने आपको ऐसे प्यारे बस्तु से जुदा करने का काम किया है | आपकी तवियत कैसी है ,आप ऑफिस जा रहें हैं या नहीं बताइयेगा जरूर ..?

अनुराग मुस्कान said...

आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए शुक्रिया... आप सभी को अपने निर्जीव चश्मे के लिए मेरा लगाव 'बस अब बहुत हो गया' लग सकता है.. लेकिन यहां सवाल उस चश्में का नहीं है बल्कि उन भावनाओं का है जो उससे जुड़ी हुई थीं.... ये तो चश्मा है साहब... मैं तो कई दिनों तक खो गए रूमाल को भी MISS करता हूं.... मामला यहां निर्जीव और सजीव से लगाव से ऊपर उठकर सोचने का है... हां... आपकी दुआओं से मैं ठीक हो रहा हूं... सोम या मंगल से ऑफिस भी जाऊंगा... टांके कट चुके हैं... लेकिन एहतियातन अभी कुछ दिन शेव करने के बचना होगा...।

sanu shukla said...

मुझे लगता है की काश आपने उन पुलिस वालों की जमा तलाशी की होती तो शायद आपका चश्मा मिल जाता ...हा हा :-)

फ़िरदौस ख़ान said...

कोई चीज़ सिर्फ़ इसलिए अच्छी नहीं होती कि वह क़ीमती है या फिर अच्छी है...बल्कि इसलिए अच्छी होती है, क्योंकि उसके साथ हमारे जज़्बात जुड़े होते हैं...आपके साथ भी ऐसा ही है...

Raj Mishra said...

हमसे अच्छा तो दयाराम है जो आपको देखने तो आया, हम तो ऐसे निकले कि क्या कहें

अनुराग मुस्कान said...

सही कहा फ़िरदौस जी, मुझे लगता है कि अगर हम अपने से जुड़ी चीज़ों से लगाव नहीं रखते तो फिर हम ख़ुद से भी लगाव नहीं रख सकते....हां, लगाव का कम या ज़्यादा होना प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर करता है..।

Archana Chaoji said...

पहले तो शीघ्र स्वस्थ हों यही कामना ...
फ़िर----ये सिर्फ़ एक "रे-बैन" की बात नहीं लिखी है आपने .......मै १७ सालों से एक पॉकेट पर्स नहीं हटा पाई हूं....अपनी अलमारी से----और उसमें रखे पैसे भी अब तक वैसे ही रखे हैं .....पता नहीं कैसा लगाव है ---निर्जीव या सजीव ......