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Sunday, May 30, 2010

माफ़ करना बिहारी भाइयों...


देखो भाई लोग, सबसे पहले तो आपको वादा करना होगा कि इस पोस्ट में की गई मज़ाक को Chill Pill की तरह लोगे, सीरियसली कतई नहीं लोगे... और लेना ही है तो लेलो... मेरा काम था वैधानिक चेतावनी जारी करना सो मैंने कर दी, अब मेरी बला से। तो हाज़रीन, वो क्या है ना कि हमलोग यानि न्यूज़ वाले बड़े तनावग्रस्त माहौल में काम करते हैं और उस तनाव को थोड़ा कम करने के लिए कभी कभार हल्का-भारी मज़ाक कर लिया करते हैं।

ऐसा ही उस दिन हुआ। हुआ ये कि ज्ञानेश्वरी ट्रेन हादसे के बाद लालू प्रसाद यादव की बाइट आई कि ड्राइवर आंखे मूंद कर ट्रेन चला रहा होगा... लालू का बयान मौक़े को देखते हुए सबको नागवार गुज़रा। मेरे सहकर्मी छतरपाल खिंची ने लालू को भला-बुरा कहा और गुस्से में ही बोले कि 'यार ये लालू रेलमंत्री डिज़र्व ही नहीं करता था' फिर छतर ने पता नहीं किस प्रवाह में सवाल उछाल दिया कि अगर बिहार में ट्रेनें ही नहीं चलतीं तो क्या होता?' छतर के इतना कहते ही हादसे में 65 हो चुके death toll का तनाव हल्का होने लगा।

लोग अपनी-अपनी राय रखने लगे। मेरे सहकर्मी अनुराग श्रीवास्तव बेलौस बोलते हैं.. कोई उनकी बात का बुरा भी नहीं मानता... वो अक्सर अपने बिहारी सहकर्मियों से मज़ाक करते हैं कि ‘अबे…, तुम लोग पैदा होते जन्मपत्री बनवाने की बजाए दिल्ली और मुंबई जाने वाली ट्रेन की टिकट क्यों बनवाते हो..?’

पीसीआर में रायशुमारी की सुनामी आ गई साहब। कोई बोला कि बिहार में ट्रेने नहीं चल रही होतीं तो मुंबई में राज ठाकरे घास काट रहे होते। भाईलोग ट्रेन पकड़-पकड़कर मुंबई पहुंचे और एमएनएस बनवा दी। एक बोला- 'मैंने तो यहां तक सुना है कि बिहार से चलने वाली संपर्क क्रांति दिल्ली आकर वीडियोकोन टॉवर के सामने ही डीरेल हुई थी, तभी से भाई लोग हमारे सहकर्मी हुए।' बाबा जोश ने भी चुटकी ली बोले- 'अरे भाई, वहां से ट्रेन यहां ना आई होती तो नौएडा के सेक्टर-58 की सड़क किनारे लाईन लगा के लिट्टी-चोखे वाले कैसे खड़े हो पाते होते..?' हमारे यहां रोशन कुमार बिहार के आरा से आते हैं, मज़ेदार आदमी हैं। कभी किसी बात का बुरा नहीं मानते। रोशन की हम लोग मज़ाक भी बनाते हैं क्योंकि वो लीव (leave) को ‘लीउ’ बोलते हैं यानि अगर उन्हे मालद्वीव बोलना होगा तो वो ‘मालद्वीउ’ उच्चारण करेंगे।

मैंने भी मज़े लेते हुए कहा, कि भई इतना तो तय है कि तब नौएडा का सेक्टर ग्यारह, सेक्टर ग्यारह ही रहता, ‘ईग्यारह’ ना हो गया होता।

बातें तो और भी बहुत सी हुईं अब यहां क्या-क्या लिखूं। लेकिन एक बात बता दूं कि कुछ लोग चाहते थे कि मैं ये पोस्ट ब्लॉग पर ना डालूं मगर उससे भी कहीं ज़्यादा संख्या ऐसे लोगों की थी जो ये चाहते थे कि मैं इसे पोस्ट ज़रूर करूं। यानि राज ठाकरे मुंबई में ही नहीं, यहां अपनी दिल्ली में भी ख़ूब हैं।

वैसे जहां तक मेरी मंशा का सवाल है मैंने ये क़िस्सा किसी पर हमले के तहत नहीं लिखा है। मेरा मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना कतई नहीं है। उस दिन बिहारी टारगेट हो गए वरना किसी दिन यूपी वाले, एमपी वाले तो किसी दिन दक्षिण भारतीय और तो और किसी दिन असमिया और उड़िया साथी निशाने पर होते हैं। एक वाक़्या बताता हूं आपको। हमारे पीसीआर में साउंड पैनल पर उड़ीसा से पपुना बस्तिया नाम के सहकर्मी हुआ करते थे। एक दिन लाइव शो में दर्शकों की राय फ़ोन के ज़रिए ली जा रही थी, पपुना पैनल प्रोड्यूसर को चिल्लाकर बताते थे कि कहां से किसका फ़ोन है। इसी क्रम में पपुना चिल्लाए- जमसेदपुर से सेक्सी का फोन है। पीसीआर में सन्नाटा पसर गया। ‘किसका फ़ोन है?’ प्रोड्यूसर से हैरत से पूछा। ‘जमसेदपुर से सेक्सी का’, पपुना ने दोहरा दिया। दरअसल वो जमशेदपुर से किसी ‘साक्षी’ का फ़ोन था। उस दिन के बाद इस बात को लेकर पपुना की टांग खिंचाई रोज़ ही होती थी। किसी भी माहौल में ये बात याद आने पर हम लोग आज तक हंसी नहीं रोक पाते। पपुना के और भी मज़ेदार क़िस्से हैं, फिर कभी सुनाउंगा।

यहां समझने वाली बात ये है कि हम लोग ख़बरों के प्रेशर में किसी की बात का बुरा माने बिना किस तरह relaxation तलाश करते हैं। मौक़ा मिलने पर कोई किसी की मज़ाक बनाने से नहीं चूकता, सब ठहाका लगाते हैं और बग़ैर किसी मनमुटाव के टीम वर्क जारी रहता है। ख़बर से मज़ाक हम करते नहीं, एक-दूसरे से तो कर ही सकते हैं। करते भी हैं। कहने वाले कह सकते हैं कि ये कोई पागलपन है या फिर वो ये भी कह सकते हैं कि हम लोग संवेदनहीन हैं, जो किसी दुर्घटना में मारे गए लोगों के बढ़ते death toll की ख़बर के साथ पूरी गंभीरता बरतते हुए भी हंस सकते हैं, तो मैं यही कहूंगा कि कह लीजिए जो कहना है लेकिन इतना तो सोचिए कि जो वीभत्स तस्वीरें हम आपको सिर्फ़ इसलिए नहीं दिखाते कि आप विचलित हो जाएंगे वो तस्वीरें हम ख़ुद घंटों तक देखते हैं। ना जाने कैसी-कैसी फ़ीड इनजस्ट होती हैं। विचलित होते हुए भी हमें विचलित नहीं होना होता। बिलकुल वैसे ही जैसे डॉक्टर किसी शव का पोस्टमार्टम करते हुए भी विचलित नहीं होता।

ऐसे में हंसी-मज़ाक ही तो अगली ख़बर को लेकर पूरी ईमानदारी के साथ जुटने का संबल देती है। चलता हूं एक ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही है...

Friday, May 28, 2010

ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के लोगों को तो मरना ही था...



पश्चिमी मिदनापुर के पास हावडा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस माओवादियों के बदले की भावना की भेंट चढ़ गई। तमाम लोग मारे गए। आम आदमी से लेकर प्रधानमंत्री तक सबको बेहद अफसोस हुआ होगा। अफसोस से ज्यादा और हो भी क्या सकता था और विश्वास रखिए अफसोस से ज्यादा कुछ होने वाला भी नहीं है। मुआवज़ा मिलेगा। मुआवज़े से मरनेवाला तो वापस आएगा नहीं। हां, उस पैसे से खरीदकर लाई गई हवन सामग्री से मरने वालों की आत्मा की शांति के लिए यज्ञ और पूजा पाठ ज़रूर किया जा सकता है। अरे मज़ाक मत समझिए, अब और कर भी क्या सकते हैं भई? धैर्य और संयम रखा है ना आपकी अंटी में, तो निकालिए उसे अंटी से और बिलकुल खैनी के माफ़िक दबा लीजिए मुंह में।

अब मरने वालों का अफ़सोस कौन मनाए। ना प्रधानमंत्री के पास टैम है ना गृहमंत्री के पास और ना हमारे-आपके पास। ऐसे हादसों में हताहतों के लिए आंसू बहाने के लिए तो भईया ओवर टाईम करना पड़ेगा, वरना यहां अपनी सलामती के लिए संघर्ष करने से फुर्सत ही कहां मिल पाती है। नौकरी-पेशे के अलावा पूरा दिन और आधी रात इसी उधेड़बुन में निकल जाती है कि सब्जियां, आटा, दाल और चावल सबसे सस्ते कहां मिल रहे हैं। ईमानदारी की कमाई में महीने के तीसों दिन दो वक्त की दाल-रोटी के वांदे हो रहे हैं और इक्कतीस के महीने में तो एक दिन व्रत रखना पड़ जाता है। ये हाल तो तब है जब घर में दो कमाने वाले हों, एक कमाई वाले घर में तो सोमवार, मंगलवार अथवा बृहस्पतिवार का मासिक व्रत रखे बगैर काम ही नहीं चलता। ऐसे में जब अपनी जान के लाले पड़े हों, दूसरे के दुखः में अफसोस जताना उसे मिलने वाले सरकारी मुआवजे से भी ज्यादा बड़ा योगदान है।

वह तो अच्छा है कि हमने धैर्य और संयम की घुट्टी घोंट कर पी रखी है वरना हम तो बिना किसी हादसे के दहशतगर्दी का मंजर देखकर ही कब के मर जाते। हम जिंदा ही इसलिए हैं क्योंकि हमने धैर्य और संयम का अमृत पी लिया है। हम अजर-अमर हो चुके हैं। हमने अमरत्व प्राप्त कर लिया है। अब हमारा कोई कुछ भी बिगाड़ ले हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम जानते हैं कि जीना और मरना तो उपर वाले के हाथ में है बाबू मौशाय, अरे, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं रे, किसे कब, कैसे और कहां उठना है इसकी डोर तो ऊपरवाले के हाथ में हैं। हा... हा... हा..., जो इस दुनिया में आया है उसे तो एक न एक दिन इस दुनिया से रुखसत होना ही है। फिर इससे अच्छी विदाई भला क्या हो सकती है कि कुछ भोले-भाले निरीह इंसानों को पता ही न चले कि उनकी मौत दहशतगर्दों के गाल पर एक करारा तमाचा बन गई है। दहशतगर्दी के गाल पर जो तमाचा कभी न मार कर सरकार कुसूरवार बन गई वह तमाचा कुछ बेकसूरों ने मार दिया। और वैसे भी ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस ट्रेन के सवारों को आज नहीं तो कल मरना ही था। सबको मरना है। लेकिन वो अपनी मौत मरते तो शायद गुमनाम ही रह जाते, अब कम से कम नक्सलवादियों के गाल पर तमाचा जड़ने वाले मृतकों की सरकारी सूची में अपना नाम तो दर्ज करा गए।


अब देखिए इसमें करना कुछ नहीं है। टेंशन लेने का नई। बस, धैर्य और संयम के साथ काम लेना है। धैर्य और संयम का यह संशोधित अध्याय है। जिसका अंत पूर्ववत पंक्ति से ही होता है कि दहशतगर्दी चाहे देश से बाहर की हो या आंतरिक, अब और बर्दाश्त नहीं की जाएगी। धैर्य और संयम के इस संशोधित अध्याय में नक्सलियों की कड़े शब्दों में निंदा करने को इस बार विशेष महत्व दिया गया है। कुल मिलाकर धैर्य और संयम के सब्जेक्ट में सभी का कम से कम स्नातक होना अनिवार्य किए जाने के संबंध में ठोस योजना तैयार किए जाने पर काम चल रहा है। दहशतगर्दों से लड़ने के लिए धैर्य और संयम के स्नातकों की फौज तैयार की जा रही है। आने वाले समय में धैर्य और संयम की थ्योरी और प्रयोगों को भलि-भांति समाझाने के लिए अतिरिक्त कक्षाएं लगाए जाने की भी संभावनाएं हैं। धैर्य और संयम के इस कोर्स को कालांतर में परास्नातक के लिए भी अनिवार्य कर दिया जाएगा। धैर्य और संयम पर गेस्ट लेक्चर के लिए बराक ओबामा और यूसुफ़ रज़ा गिलानी को आमंत्रित भी किया जा सकता है। समय-समय पर धैर्य और संयम पर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित करा कर 'वर्तमान संदर्भों में इसकी महत्ता' विषय पर समीक्षा भी कराई जाती रहेगी। सेमिनार की प्रचार सामग्री पर एक विशेष नोट लिखा होगा- समीक्षा में धैर्य और संयम की अलोचना मान्य नहीं होगी, धैर्य और संयम की आलोचना को दहशतगर्दी की मानसिकता से प्रभावित और प्रेरित माना जाएगा।

मुझे धैर्य और संयम के इस पाठ्यक्रम का भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है। क्योंकि आने वाले समय में धैर्य और संयम के हथियार से हमें केवल आतंकवाद और नक्सलवाद को ही मुंह तोड़ जवाब नहीं देना है बल्कि आसमान से चुंबनरत महंगाई का मुकाबला भी करना है। हमें न्याय की खोखली आस में हर अन्याय का सामना धैर्य और संयम के साथ ही करना है। धैर्य और संयम के बेहतर प्रचार-प्रसार के लिए हम गांधीजी के तीन बंदरों की तरह धैर्य और संयम के बंदर भी बना सकते हैं। जिसमें धैर्य का बंदर बिजली के करंट प्रवाहित तारों से चिपका होगा और संयम का बंदर पूरी सहजता के साथ चुपचाप नीचे खड़ा यह तमाशा देख रहा होगा। यहां निजी अनुभव के आधार पर बताना चाहूंगा कि धैर्य और संयम का पाठ कंठस्थ करने के लिए गीता-सार का भी अध्ययन करें और जिन लोगों का धैर्य और संयम जवाब दे रहा है उन्हे भी गीता का सार पढ़ने से विशेष लाभ होगा। फिर देखिएगा धीरे-धीरे धैर्य और संयम कैसे हमारी राष्ट्रीय भावना बन जाएगा। क्या ख़्याल है आपका...?

कुंए के मेंढ़क

एक कुआं था साहब। पानी कम कीचड़ ज्यादा वाला। कुएं में करोड़ों मेंढ़क रहा करते थे। मेंढ़कों को कुएं का सभ्य एवं सम्मानित नागरिक होने पर बड़ा गर्व था। छाती फुलाए-फुलाए इतराकर यहां-वहां गाते फिरते थे, 'ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का.....इस देश का यारों क्या कहना..टर्रर्रर्रर्रर्रर्र...' इमोश्नल होकर सभी मेंढ़क उस कुएं को 'लोकतंत्र का कुआं' कहते थे। और कुएं से बाहर के सभी जीव-जन्तु उन मेंढ़कों को इमोश्नल फूल। कुएं में हर तबके, हर वर्ग और हर धर्म के मेंढ़क रहते थे। कुछ मेंढ़क जिन्होने अपने सिर पर सफेद टोपी पहन ली वह नेता मेंढ़क कहलाने लगे और उन्होने ने जिन्हे टोपी पहनायी वह कहलाये जनता मेंढ़क। कुएं में लोकतंत्र हो, नेता हो और जनता हो तो यह भला कैसे संभव है कि संसद न हो। तो साहब, कुएं के बीचों-बीच एक संसद भी थी।

तो भईये, कुएं की राजनीति में दो ही पार्टियों की टर्र-टर्र ज्यादा बोलती थी। एक 'कुएं के मेंढ़क पार्टी' और दूसरी 'बरसाती मेंढ़क पार्टी'. कुएं की मेंढ़क पार्टी का चुनाव चिन्ह पैर के पंजे का निशान था। हाथ के पंजे का इसलिए नहीं था क्योंकि वह पहले ही किसी और पार्टी के नाम आवंटित था। पैर का पंजा भी कोई बुरा चुनाव चिन्ह नहीं था। कम से कम पार्टी यह सोच कर तसल्ली में थी कि कीचड़ में पैर खराब करना कीचड़ में हाथ गंदे करने से कहीं ज्यादा बेहतर है। वैसे भी पैर के पंजे से ऐसी-ऐसी खुराफातें की जा सकती हैं जिसकी खबर अपने हाथ तक को न होने पावे। शुभ कामों में सत्यानाश मचाने के लिए पैर का पंजा की अड़ाया जाता है। सो पार्टी बेफ्रिक हो ली।

ऐसे ही, बरसाती मेंढ़क पार्टी का चुनाव चिन्ह था सिंघाड़ा। कमल का फूल इसलिए नहीं क्योंकि वह भी पहले ही किसी और पार्टी के नाम आवंटित था। सिंघाड़ा चुनाव चिन्ह आवंटित होते ही कुएं के मेंढ़क पार्टी को कुएं में पसरी कीचड़ में असीमित संभावनायें नजर आने लगीं। कीचड़ में सिंघाड़े का भविष्य उतना ही उज्जवल था जितना कि कमल का होता है। कुल मिलाकर इन दोनों के अलावा सभी राजनैतिक पार्टियों का प्रमुख एजेंडा 'कीचड़' ही था। नेता मेढ़कों की ओर से विचारधारा, अनुशासन और नैतिकता के नाम पर तब तक पानी किया जाता था जब तक उसकी फिसलन में जनता मेंढ़क फिसल-फिसल कर औंधे मुंह न रपटने लगें। कभी-कभी तो नेता मेंढ़क खुद अपने ही मुंह पर कीचड़ मलते और नाम दूसरी पार्टी का लगाते। राजनीति में कीचड़ और कीचड़ में राजनीति, नेता मेंढ़कों का नया संविधान था।

वैसे, कीचड़ की राजनीति करने वाले मेंढ़कों की हर पार्टी में पौ-बारह रहती है। नेता मेंढ़कों की तोंद जरूरत से ज्यादा बाहर नजर आती है और जनता मेंढ़क राजनीति की प्रयोगशाला में बारी-बारी से पेट चीरने के काम में लाए जाते हैं। अंत में पानी कम कीचड़ ज्यादा वाले इस कुएं के लोकतंत्र में छंटे हुए मेढ़कों की सत्ता अपना स्वर्णिम युग जीती है।

ये 'लोकतंत्र का कुंआ' बडा व्यापकता लिए हुए है जनाब। नज़र घुमाइए, आपको अपने आसपास ही मिल जाएगा। मिला क्या...?

Thursday, May 27, 2010

मैं ‘मुस्कान’ कैसे हुआ..

लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि भईए, ये ‘मुस्कान’ क्या है? आज बता ही देता हूं।
द्वारिका प्रसाद माहेश्रवरी जी का नाम तो सुना ही होगा आपने। उनकी कविताएं ‘उठो लाल अब आंखे खोलो, भोर भई अब मुख को धो लो...’और 'वीर तुम बढ़े चलो..', शायद ही किसी ने अपने छुटपन में ना पढ़ी हो। ये नाम ‘मुस्कान’ मुझे उन्ही द्वरिका प्रसाद माहेश्रवरी जी ने दिया है। किस्मत से मैं भी दादा के शहर आगरा में रहता था। उन दिनों कविता लिखने का शौक परवान चढ़ रहा था, कवि मित्रों के साथ ख़ूब गोष्ठियां भी हुआ करती थीं। अहो भाग्य, जो इसी क्रम में दो तीन बार दादा की अध्यक्षता में हुए कवि सम्मेलन में मुझे भी कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। ये कोई 1992-93 की बात है। तब मैं अनुराग सक्सेना के नाम से ही मंचों पर काव्यपाठ किया करता था और अख़बारों में भी इसी नाम से मेरे लेख और कविताएं प्रकाशित होते थे। दादा के साथ कविता पाठ करना गौरव की बात थी। एक दिन दादा के बगल में ही बैठ गया। तभी संचालक ने एक कवि को उनके तख़ल्लुस यानि उपनाम के साथ आमंत्रित किया। कवि महोदय का उपनाम अत्यंत हास्यास्पद था, सो सब हंस पढ़े। दादा भी हंस दिए। मैंने माहेश्रवरी जी से पूछा कि दादा आपने कोई उपनाम क्यों नहीं रखा? वो बोले- ‘अमां यार, हमारे दौर में कुल जमा 7-8 कवि हुआ करते थे, अब आजकल तो श्रोताओं से ज़्यादा कवि हुआ करते हैं। हमें पहचान के लिए किसी उटपटांग नाम की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। अब तो ऐसे ही नामों से कवियों कि पहचान होती है। कोई अपने नाम के साथ गिलहरी जोड़े हुए है, कोई सूंड़, पटाखा, भोंपू, सांड और भी ना जाने क्या-क्या। तुम भी कुछ लगाते हो क्या?’

‘नहीं दादा लगाता तो नहीं हूं लेकिन सोच रहा हूं लगा लूं.... दोस्त लोग कहते हैं कि बड़ी चुभने वाली कविताएं कहता हूं, तो ‘कांटा’ या ‘सुई’ या फिर इन जैसा कोई तख़ल्लुस रख लो लेकिन मुझे ये सब पसंद नहीं...’ थोड़ा पॉज़ लेकर मैंने कहा ‘दादा आप कि कोई नाम सुझा दीजिए ना।’ वो बोले- ‘अच्छा एक दिन को अपनी डायरी दो... कल घर आकर ले जाना... पढ़कर बताता हूं क्या उपनाम हो सकता है।’

अगले दिन मैं दादा के घर डायरी लेने पहुंचा। डायरी देते हुए दादा बोले-‘यार, बहुत रोता है तू (कविताओं में) कम से कम नाम ही ‘मुस्कान’ रख ले।’ और मैं मुस्कान हो गया। फिर काफ़ी समय तक अनुराग सक्सेना ‘मुस्कान’ के नाम से लिखता रहा लेकिन फिर दोस्तों की सलाह पर सिर्फ ‘अनुराग मुस्कान’ कर लिया।

बालकवि द्वारिका प्रसाद माहेश्रवरी ओजस्वी कवि थे। ये उन्ही को ओज है कि मैं आज रोतड़ू से मुस्कान हो गया हूं।

Wednesday, May 26, 2010

भगवान के नाम पे...

नौ साल का करियर हो गया होता अपना बाबागीरी में।


भाई साहब, बालाजी मंदिर वालों ने 1070 किलो सोना बैंक में जमा कराया है पिछले दिनों। भक्तों ने चढ़ावे में चढ़ाया था सोना। मैं तो ख़बर सुनकर ही मालामाल हो गया। यही तो कलयुग है। इधर भक्तों का इन्क्रीमेंट तक अटका हुआ है, और उधर भगवान बिलियनेयर होते जा रहे हैं। बालाजी तो खैर सबसे अमीर भगवान हैं ही लेकिन बाक़ी के भगवान लोग भी कम मज़े में नहीं हैं। ये कैसी विडंबना है प्रभु, भक्त भरोसे भगवान मालामाल और भगवान भरोसे भक्त कंगाल। हे भगवान, ये क्या हो रिया है?

भगवान तो भगवान, भगवान का गुणगान करने वालों की भी कम ऐश नहीं है। आपने कभी जिस महाराज का नाम तक नहीं सुना वो भी कथा बांचने के लिए एक साथ हज़ारों भक्तों को क्रूज़ पर ले जाते हैं। लंदन, पेरिस और न्यूयार्क की हवाई यात्राएं कराते हैं। कोई क्रूज़ पर कथा बांच रहा है तो कोई 50,000 हज़ार फीट की उचांई पर भजन कीर्तन कर रहा है। नारायण...नारायण। जो कभी किसी चैनल पर प्रवचन करते थे उन्होने वो चैनल ही खरीद मारे। जो कभी भगवान के वंदन के साथ इस फील्ड में उतरे थे, वो ख़ुद ही भगवान बन बैठे। परमपूज्यपाद हो गए, प्रातःस्मरणीय कहलाने लगे।

नौ साल पहले एक भारी भूल ना की होती तो मैं भी आज एक जाना माना घुटा संत होता। अरे कुछ नहीं..., आस्था चैनल के लिए एक कथावाचक महाराज के प्रवचनों की डील कराई थी। नौ लाख़ की डील थी, जिसमें मेरा कमीशन 90,000/- था। कोई लिखित कांट्रेक्ट हुआ नहीं था, पूरी डील वायदा कारोबार के तहत हुई थी। खा गया गच्चा। फंस गया कमीशन। आज नहीं कल, कल नहीं महीने भर बाद, महीने नहीं साल भर... हार कर मैं पहुंच गया मुंबई। मालिक से मिलने। पैसे मांगे तो बोले-‘अरे 90,000 रुपए लेकर क्या करेंगे अनुराग जी, आप तो करोड़ों के आदमी हैं। क्या दमदार आवाज़ है आपकी। चलिए हम आपको आस्था पर स्लॉट देते हैं और तीन महीने का समय... कराना आपको ये है कि रामायण और महाभारत को अंग्रेज़ी में नाट्य पटकथा के रूप में कंठस्थ कर लीजिए। तीन महीने बाद चैनल पर आपके प्रवचन प्रारंभ। पैसा हमारा.. दमदार आवाज़ में प्रस्तुति आपकी। साल भर में ही करोड़पति हो जाएंगे आप। महाराज होने का तमगा अलग।’

लोग आंखों में सपने सजाकर मुंबई जाते है और मैं मुंबई से आखों में सपने सजाकर लौट रहा था। प्रस्ताव के बारे में पता चलते ही घर में रोआ-चिल्लाट मच गई। मां छाती पीट-पीट कर रोने लगी-‘अरे, क्या इसी दिन के लिए पैदा किया था तुझे कि एक दिन बाबा बन जाए। नहीं बेटा नहीं... बस ये मत करना... तुझे मेरी क़सम।’ पिता के देहांत के बाद मां ने मुझे बड़ी मुश्किलों से पाला है। सो मैं उसके रुदन पर पसीज गया। बाबाजी बनने का आइडिया मां के आंसूओं में डाइलियूट हो गया।

आज बड़ा अफ़सोस होता है भाई। नौ साल का टनाटन करियर हो गया होता अपना बाबागीरी में। मस्त लाइफ़ कट रही होती। और हां, धन-दौलत, ऐश-ओ-आराम और वैभव देखकर शायद मां को भी कोई शिकायत नहीं होती। वो नौ साल पहले भी मेरी मां थी और आज भी मेरी मां है। आस्था का प्रपोज़ल मान लिया होता तो वो भी सिर्फ मां ना रहती। अरे भाई गुरूमां हो गई होती। क्या ख़्याल है आपका...?


और हां, एक स्वर्णिम करियर से तो मुझे हाथ धोना ही पड़ा, वो 90,000 रुपए भी गए सो अलग।

Tuesday, May 25, 2010

रूचिका आज कहीं 19 साल की होगी...

न्याय हमारी पहुंच से कितनी उम्र दूर है...?

रूचिका आज अगर इस दुनिया में होती तो 32 साल के आसपास होती और अगर आप आत्मा के शरीर बदलने में यक़ीन करते हैं तो आपको ये भी मानना पड़ेगा की रुचिका ने अगर दूसरा जन्म लिया होगा तो वो आज किसी रूप में 19 साल की हो चुकी होगी। रुचिका ने जब आत्महत्या की थी तो वो 13 साल की थी। यानि रुचिका आज उस उम्र से भी 6 साल बड़ी होगी जिस उम्र में उसे राठौर ने ख़ुदकुशी के लिए मजबूर किया था। मैंने आपको इतना mathematics इसलिए समझाया कि आप समझ सकें कि जिस देश में आप रहते हैं उसमें न्याय आपकी पहुंच से कितनी उम्र दूर है।

कल्पना कीजिए कि कहीं जन्म ले चुकी 19 साल की रूचिका आज अपने घर में बैठकर टीवी पर ये ख़बर देख रही होगी और रूचिका गिरहोत्रा के लिए इंसाफ़ की उम्मीद में प्रार्थना कर रही होगी और घर से बाहर..... घर से बाहर ना जाने कितने ही एसपीएस राठौर उसे दबोचने के लिए तैयार होंगे। तो क्या ये दमनचक्र जारी रहेगा। एक राठौर पकड़ा गया, कितने छूट जाते होंगे।

वैसे कमाल नहीं है इस देश की क़ानून व्यवस्था? उन्नीस साल बाद रुचिका से छेड़खानी के मामले में मनचले राठौर को सज़ा होती है, और वो भी ड़ेढ साल की। ये भी अभी निचली अदालत का फैसला है। यानि पीड़ित परिवार के लिए 19 साल बाद भी ये लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है। अभी तो खैर राठौर का ठौर जेल है लेकिन कितने दिन? राठौर के सामने हाई कोर्ट का दरवाज़ा है, सुप्रीम कोर्ट की चौखट है। मलतब ये कि राठौर सालों तक इन अदालतों के दरवाज़े पीट-पीट कर कड़ी सज़ा से ज़्यादा से ज़्यादा समय तक बचता फिर सकता है। मुमकिन है, इन सालों में राठौर अपनी स्वाभाविक मौत मर भी जाए। लेकिन याद रहे, रुचिका अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरी थी। उसे राठौर ने मरने पर मजबूर किया था। एक 13 साल की मासूम बच्ची को किस क़दर प्रताड़ित किया होगा इस वहशी ने।

फिर भी हमारे देश की क़ानून व्यवस्था ने उसे छेड़खानी के मामले में अधिकतम सज़ा, जो दो साल की होती है, वो नहीं दी। कारण समझा जा रहा है राठौर की बढ़ती उम्र और उसकी बीमारियां। तो क्या रूचिका की उस उम्र को नज़रअंदाज़ कर दिया गया? क्या जिस उम्र में रुचिका ने वो मानसिक उत्पीड़न सहा होगा उसके सामने दो साल की सज़ा काफी है? और राठौर को तो वो भी नहीं हुई। जब राठौर को छः महीने की सज़ा हुई थी तो वो फ़िल्म 'कमीने' के फ़ाहिद कपूर की तरह मुस्कुरा रहा था। आज डेढ़ साल की सज़ा हुई तो सिट्टीपिट्टी गुम। लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है। उसकी पत्नी तो महंगे ब्रांड का चश्मा पहने कर मुस्कुरा ही रही है। और सबसे बड़ी बात तो ये कि रूचिका को न्याय केवल राठौर के चेहरे से मुस्कुराहट भर छीन लेने से तो मिलेगा नहीं।

आज इसी मसले पर Live Bulletin कर रहा था। केन्द्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ से Phono हुआ तो उन्होंने भी कहा कि किसी से छेड़खानी की सज़ा दो साल बहुत कम है, और विशेषकर बच्चियों के साथ हुई छेड़खानी के मामले में तो बहुत कम। उन्होने न्याय व्यवस्था में बदलाव की पैरवी भी की। मेरी समझ में ये नहीं आता कि जब लचर न्याय एवं क़ानून व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत इतनी शिद्दत के साथ महसूस की जाती रही है तो इंतज़ार किस बात का है?

या तो आलसी व्यवस्था बदले या फिर 19, 20, और 25 साल बाद निचली अदालतों से मिले न्यायसंगत फैसलों का स्वागत करने की हमारी आदत।

Monday, May 24, 2010

'जब पप्पू के बापू श्यामलाल से मिले भगवान शंकर'

'जब पप्पू के बापू श्यामलाल से मिले भगवान शंकर'

एक सूखा ग्रस्त गांव था। ये उस गांव के दो बेचारे किसानों की कहानी है, रामलाल और श्यामलाल। दोनों अभागे सूखे की मार से त्रस्त थे। तीन सालों से आसमान एक बूंद नहीं टपका था। जी हां, बिलकुल फ़िल्म लगान के चंपारन गांव की सी कहानी थी। कहीं से उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आ रही थी। खेत और पेट दोनों सूख चुके थे। अब तो बस भगवान का ही आसरा था। लेकिन एक समस्या थी, रामलाल जहां घोर आस्तिक किस्म था वहीं पट्ठा श्यामलाल विकट नास्तिक। रामलाल का भरोसा धर्म पर तो श्यामलाल भाग्य भरोसे।

तो आगे हुआ ये कि भईए, किसान रामलाल ने तो अपने खेत में शिव जी का एक मंदिर बनाया और पिल पड़ा पूजा पाठ में। उधर श्यामलाल की महरारू यानि घरवाली ये जानती थी कि पप्पू के बापू यानि श्यामलाल पूजापाठ तो करेंगे नहीं, फिर भी अभागी ने शंकर जी की एक छोटी सी मूर्ति तो लगा ही खेत के बीचों बीच। और ख़ुद घर में पूजा अर्चना शुरू कर दी। अब रोज़ होता ये था कि रामलाल तो बर्ह्म महूर्त से रात्रिकाल के अंतिम पहर तक शिव चालीसा का पाठ करते नहीं थकता और उधर श्यामलाल बर्ह्म महूर्त से रात्रिकाल के अंतिम पहर तक सूखे खेत में गड़े शिवशंकर की मूर्ति को गालियां बकता। वो बिना बात अक्सर भड़क उठता, शिव शंकर को भद्दी गालियां देता, एक बार मिल लेने पर देख लेने की धमकियां देता। थूकता, लतियाता और शिव जी में कीड़े पड़ने की बददुआ देता। मूर्ति हटाने की हिम्मत तो थी नहीं श्यामलाल की, घरआली ने जो लगाई थी। खैर साहब, दो साल तक ऐसा ही चलता रहा.... बस, ऐसा ही चलता रहा। एक खेत में पूजापाठ और दूजे में गाली-गलौज।

अब बारी ऊपर पार्वती के साथ बर्फ़ीले कैलाश पर्वत पर विराजे शिव शंकर की थी। पार्वती से बोले- ‘सुनो प्रिये, हम ज़रा अभी आते हैं। एक भक्त बड़ी श्रद्धा से हमारी वंदना करता है, उसे वरदान देकर आते हैं।’ शिव शंकर प्रकट हो गए श्यामलाल के सामने। वही श्यामलाल जो शिव शंकर को खरी-खोटी सुनाता था। बोले- ‘हम प्रसन्न हुए बच्चा, मांग क्या मांगता है?’ श्यामलाल भिन्नौट हो गया, भड़क उठा। चिल्लाया- ‘भाग जा शिवशंकर के बच्चे, वरना खैर नहीं तेरी... साल्ले इसी हल से ज़मीन में गाड़ दूंगा... मेरी दिल से निकली बददुआ लगेगी तुझे, देखना कीड़े पड़ेगें तुझमें... तमाशा देखने आया है हमारा... हमें कुछ नहीं चाहिए... जा भाग जा यहां से।’ शिवजी मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए ‘तथास्तु’ कह कर कट लिए। उनके अंतर्ध्यान होते ही श्यामलाल के खेत से सोने की अशर्फियां निकलने लगीं। श्यामलाल के दिन बहुर गए।

शिवजी कैलाश वापस लौटे तो पार्वती जी माथा पकड़े बैठी थीं। बोलीं- ‘धत्त तेरे की, ई धतूरे की पिनक में ये क्या कर आए प्रभु, ग़लत आदमी को वरदान दे दिया, मेरा तो कब से माथा ख़राब है... रामलाल और श्यामलाल में टोटल कंफ्यूज़ कर गए आप... जो गाली बकता था उसकी लाइफ़ सेट कर दीस।’ शिवशंकर मुस्कुराए, बोले- ‘नहीं प्रिया, हम कतई कंफ्यूज़ नहीं हैं... हमने सही आदमी को वरदान दिया है... रामलाल हमारा नाम लालच और स्वार्थ के चलते लेता है, लेकिन श्यामलाल निस्वार्थ भाव से हमारा नाम लेता है... गालियों के साथ ही सही लेकिन पूरे मन, कर्म और वचन के साथ हमरा नाम लेता है। हमारा सच्चा भक्त तो श्यामलाल ठहरा। इसलिए हम उससे प्रसन्न हुए। समझी....?’

‘आप तो एकदम से ग्रेट हैं जी।’, पार्वती जी इतराते हुए बोलीं।

मॉरल ऑफ़ द स्टोरी- जो तुम्हे बेनागा गालियां बकता है... वो तुम्हारा दुश्मन नहीं बल्कि वो तो तुम्हारा सच्चा भक्त है। उसे गाली के बदले गाली नहीं, वरदान दो वरदान। अमां अब तो अपने सच्चे भक्तों के पहचानना सीखो। मैं भी आजकल अपने सच्चे भक्तों को चिन्हित कर रहा हूं। मित्रों.... उन्हे वरदान जो देना है।

Friday, May 21, 2010

काश...!

काश! मेरा भी कोई रिमोट कंट्रोल या ऑन-ऑफ बटन होता...

रात के डेढ़ बज रहे हैं। सोने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं। कमरे में सिर्फ नाइट बल्ब जल रहा है। नाइट बल्ब की रोशनी में उसके चारों तरफ की दीवार के सिवाए तीन नंबर पर चलता हुआ सीलिंग फैन दिखाई दे रहा है। सोच रहा हूं इंसान क्यों हुआ, पंखा क्यों नहीं। बटन से चलता, बटन से रुकता। बटन से ही धीमा और तेज होता। इंसान हूं। बटन की बजाए मन से चलना पसंद करता हूं। यही रात के इस वक्त तक जागने की वजह भी है शायद। रात के इस सन्नाटे को इससे पहले भी महसूस किया है लेकिन इतनी शिद्दत से पहली बार महसूस कर रहा हूं। पहले ऐसे सन्नाटे में दिल की धड़कने और सांसों की आवाज सुनाई देती थी। नाइट बल्ब तब भी जलता था, सीलिंग फैन तब भी चलता था। लेकिन आज दिल की धड़कनों और सासों की आवाज से ज्यादा सीलिंग फैन की आवाज और उससे कटने वाली हवा की सांय-सांय सुनाई दे रही है। मेरी धड़कन की आवाज में और भी आवाजें जुड़ गई हैं, फिर इतना सन्नाटा क्यूं है?

मैं बहुत खुश होता। मैं बहुत सुखी होता अगर मेरा भी कोई रिमोट कंट्रोल या ऑन-ऑफ बटन होता। सीलिंग फैन के बारे में सोच रहा हूं। जाड़े के महीनों में आराम तो मिलता है इसे। मेरे आराम का कोई मौसम नहीं। न मौसम, न बटन। क्या यही खालीपन खल रहा है। कमरे के नीले लाइट बल्ब और आसमान के नीलेपन की रिक्तता में कितनी समानता लग रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कमरे में नीला आसमान पसर गया हो। लेकिन जानता हूं कि आसमान आकार में मेरे कमरे के नीले रंग से कहीं व्यापक है, फैला हुआ है। भले ही उसका खालीपन मेरे कमरे के खालीपन से ज्यादा विस्तार लिए हुए नहीं है। रात के आसमान के नीले कैनवास पर आधे चांद और पूरे सितारों की एक खूबसूरत पेंटिंग बनी है। कमरे के आसमान पर उखड़े और सीले हुए पलास्तर के सिवा उपर रहने वाले मकान मालिक की चहलकदमी की खटपट के सिवा कुछ नहीं। सुबह शेव करते समय ख़ुद से ही जिंदगी से जुड़े कई सवाल पूछता हूं। सवाल शेव के फोमयुक्त झाग की तरह फैलते जाते हैं। गुणा होते जाते हैं। जवाब भी मिलता है तो एक नए सवाल की शक्ल में। अकसर सवाल यह कि कौन हूं मैं, कहां से आया हूं? क्यों आया हूं? कहां जाना है? कहां जा रहा हूं?

इस एक बार मिले जीवन को किसी और की मर्जी से सहर्ष(?) जी रहा हूं। क्यों? अपनी इच्छा से नहीं जी रहा। क्यों? शिकायत भी नहीं करता। क्यों? ना दूसरे की मर्जी से जीवन जीकर खुश हूं ना अपना मर्जी से ना जीकर। अगर मैं जीवन के सर्कस में जोकर भी हूं तो मेरा कोई एक रिंगमास्टर क्यों नहीं है। बहुत सारे क्यों हैं? मैं खुद पर पूरा यकीन करता हूं, लेकिन मुझपर हर कोई यक़ीन नहीं करता। ऐसा क्यों?

ज़िंदगी को समझने के फेर में जिंदगी को जीना ही भूल बैठा, जिंदगी को भरपूर जी लेता तो शायद वो समझ में ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाती। अब बहुत कंफ्यूज़ हूं। है कोई हल...?

Tuesday, May 18, 2010

संस्मरण

बद्री विशाल ने मुझे नहीं, रविकांत को बुलाया था....



(ये एक दुखःद संस्मरण है। भगवान के द्वार पर ले जाने वाले रास्ते से बीच में लौट आना निश्चित ही निराश करने वाला रहा। गला ख़राब है इसलिए हर किसी के पूछने पर पूरा वाक्या नहीं बता सकता... सोचा डॉक्टर की हिदायत पर ज़ुबान बंद है तो क्या शब्दों की ज़ुबान तो चला ही सकता हूं.. )



मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी लाइव शूट से पहले ही मुझे बीच में उसे अधूरा छोड़कर आना पड़ा हो। मैं व्यथित हूं। ये बद्रीनाथ कपाट खुलने का लाइव शूट था। 19 मई को 8 बजकर 7 मिनट पर कपाट खुलने हैं(यानि कल) और उसे कवर करने के लिए पूरी तैयारी के साथ 16 मई को सुबह चार बजे मैं और कैमरापरसन वेद पांडे बद्रीनाथ लाइव के लिए रवाना हो गए। सफ़र लंबा था। हमारा मकसद उसी दिन जोशीमठ पहुंचने का था। दूसरे दिन यानि 17 तारीख़ को जोशीमठ के नृरसिंह मंदिर से शंकराचार्य की पालकी उठने के साथ ही बद्रीनाथ कपाट खुलने के आयोजन का शुभारंभ होता है। हमें वो अपने डेली शो समर्पण के लिए कवर करना था। बहुत ही संगीतमय और भव्य आयोजन होता है ये। मैं इस आयोजन को सहारा समय उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड के लिए पहले भी तीन बार कवर कर चुका हूं। इस बार ये सौभाग्य मुझे मेरा चैनल स्टार न्यूज़ दे रहा था। मैं बहुत उत्साहित और रोमांचित था।

लेकिन शायद इस बार बद्री विशाल को कुछ और ही मंज़ूर था। दरअसल परेशानी की शुरूआत 12 मई से होती है। 12 मई की दोपहर अपने सहकर्मी सुशील जोशी के साथ कैंटीन में थम्स-अप पी ली। हम लोग दोपहर के खाने के बाद अक्सर कोल्डड्रिंक पीते हैं। कभी कोई परेशानी भी नहीं होती लेकिन उस दिन शाम गले में ख़राश सी महसूस होने लगी। मैं जानता था मेरा गला थोड़ा सैंसेटिव है और मेरा ही क्या गले से काम लेने वाले तमाम लोग जैसे सिंगर और एंकर का गला काफी संवेदनशील होता है। लेकिन कोल्डड्रिंक से चूंकि ऐसी कोई परेशानी पहले कभी हुई नहीं थी इसलिए पीने से पहले सोचा भी नहीं। रात तक परेशानी में थोड़ा इज़ाफा हुआ तो अपने डॉक्टर गुलाब गुप्ता को फ़ोन करके एपोइंटमेंट मांगा। उन्होने कहा कि आने कि ऐसी कोई ज़रूरत तो नहीं है बस ठंडे से परहेज़ करें और गर्म पानी से गरारे करें और Alex Cough Lozenges चूसते रहें, इससे आराम मिलेगा। आराम ना मिले तो कल दिखा दें। डॉक्टर की सलाह काम कर गई और मुझे आराम मिल गया। हांलाकि शरीर में हल्की टूटन और हरारत बरकरार रही। सोचा थकावट होगी। कुल मिलाकर मैं आराम महसूस कर रहा था।

मैं बद्रीनाथ जाने की तैयारी में जुट गया। बद्रीनाथ मेरी पंसदीदा जगह है। मैं चार बार बद्रीनाथ जा चुका हूं। मैं पहाड़ पर कभी भी कहीं भी जा सकता हूं। घूमने के लिए पहाड़ मेरी पहली पसंद रहे हैं और शायद हमेशा रहेंगे। पांचवी बार बद्रीनाथ जा रहा हूं, मैं प्रसन्न था। मन ही मन रूपरेखा तैयार कर रहा ता कि कौन सा Event अलग तरह से कैसे कवर किया जा सकता है। भव्य और रघुवीर रिचार्या जो स्टार न्यूज़ के कार्यक्रम समर्पण का हिस्सा हैं और प्रोड्यूसर सिद्धार्थ श्रीवास्तव जो बद्रीनाथ पर Documentry बना रहे थे, उनसे भी सलाह लेता रहा। अब सब ठीक था। मुझे तो कम से कम ऐसा ही लगा।

…..तो 16 के ब्रह्म महूर्त में हमें निकलना था और 15 को मेरी ईवनिंग शिफ़्ट थी। शाम 5 बजे recorded चलना था। 6 बजे भी recorded था। मेरे पल्ले एक बस 7 बजे का ‘आज की बात’ था। यूं तो मेरा उसके बाद भी रात 9 बजे का बुलेटिन था लेकिन वो भी recorded था सो मुझे 7 बजे वाला बुलेटिन करके जल्दी जाने की इजाज़त मिल गई। ‘आज की बात’ नकली आइसक्रीम पर केन्द्रित था। कानपुर और अलीगढ़ में आइसक्रीम की नकली फ़ैक्ट्रियां पकड़ी गई थीं जो पेंट और पोस्टर कलर से आइसक्रीम बना रही थीं। हमने भी न्यूज़रूम में कैनवास लगाया, बुलेटिन की शुरूआत कैनवास पर पोस्टर कलर से मेरे आइसक्रीम लिखने के साथ हुई। मैंने लीड ली कि मैं तो इस पोस्टर कलर से सिर्फ आइसक्रीम लिख रहा हूं लेकिन कुछ लोग तो इससे आइसक्रीम बना रहे हैं। अच्छा प्लान था। एजेंडे के मुताबिक नकली आइसक्रीम के नुकसान बताने के साथ-साथ मुझे ON AIR असली आइसक्रीम भी खानी थी, ये कहते हुए कि ये आइसक्रीम नकली नहीं है क्योंकि इसे निर्मित करने वाली फैक्ट्री में आइसक्रीम बनाने के सभी मानकों का ख़्याल रखा गया है। आईडिया, बेहतर तरीक़े से दर्शकों तक बात पहुंचाने के अलावा मज़ेदार भी था, सो मैं पैकेज के दौरान दो-तीन चम्मच आइसक्रीम यूंही खा गया। कुछ और ख़बरों के साथ बुलेटिन ख़त्म हुआ और मैं मेकअप remove करके घर को रवाना हुआ।

गले में कील सी चुभना शुरू हुई। मैं मान ही नहीं सकता था कि आइसक्रीम खाने से ऐसा हो रहा है। क्योंकि एक तो इतनी ज़्यादा मात्रा में मैंने आइसक्रीम खाई नहीं थी और दूसरा ये कि आइसक्रीम मैंने कोई पहली बार नहीं खाई थी। बेमौसम भी नहीं नहीं खाई थी। फिर ये क्या हो गया। मुझे खांसी भी आने लगी। मामला उतना गंभीर नहीं लगा। मैंने बैग लगाया और Himalaya के Saptalin Syrup के दो चम्मच पी कर सो गया। सुबह साढ़े तीन बजे Car Club की गोरी चिट्टी Innova ड्राइवर तेजपाल के साथ दरवाज़े पर खड़ी थी। मैं उसमे सवार होकर Camera Person वेद पांडे के घर पंहुचा और पांच बजे हम मुरादनगर की सरहद पर थे। ड्राइवर को हमेशा की तरह हमने बता दिया कि अगर कहीं पर उसे थकावट हो या नींद आए तो तुरंत हमें बता दे। जान है तो जहान है। वो बोला चिंता मत कीजिए सर मैं लगातर 24 घंटे गाड़ी चला सकता हूं। विडंबना ये की वो मुरादनगर Cross करते ही झपकियां लेने लगा। मैंने और वेद ने फैसला किया कि हम पूरे रास्ते ड्राइवर से बतियाते चलेंगे। हमने किया भी वैसा ही। लेकिन मुझे बोलने में परेशानी महसूस सी हो रही थी। बोलते ही गले में छिलन सी होती थी।

खैर, ऐसा तो अक्सर हो जाता है। रात को ऐसा-वेसा कुछ खा लिया था क्या? वेद ने पूछा। आइसक्रीम- मैंने बताया। बस, उसी से हो गया ये। अब ऐसा करना कि आगे जहां भी रुकें वहां गरम पानी के गरारे कर लेना। वेद पांडे भले ही माने लेकिन मैं अभी भी मानने को तैयार नहीं हूं कि ये आइसक्रीम की वजह से हुआ।

हमारा
ड्राइवर भी बड़ा ढ़ीला था। औंघा-नींदी में या बातों-बातों में बिना टैक्स कटाए ही उत्तराखंड में दाखिल हो गया और ये बात भी पट्ठे को हरिद्वार पहुंचकर याद आई। बोला, अरे सर यहां कहीं टैक्स कटता है। अब क्या करें? अपने स्ट्रिंगर रोहित सिखोला को फ़ोन लगाया। रोहित ने कहा कोई बात नहीं रायवाला पर RTO बैठता है, वहां जा कर टैक्स जमा करा दें। अब ड्राइवर रायवाला में RTO Office ढ़ूंढता रहा। कभी आगे कभी पीछे, कभी दांये कभी बाएं। फिर क्या हुआ? होना क्या था। आरटीओ को ढ़ूंढने के क्रम में आगे निकल गए, किसी ने बताया कि पीछे रह गया। पीछे लौटे तो आरटीओ डंडा लेकर ख़ुद ही प्रकट हो गया।
- गाड़ी कहां से आ रही थी?
- साहब, ऋषिकेश की तरफ से। वर्दी वाला उसका चेला बोला।
- लाओ, पेपर दिखाओ....... टैक्स रसीद कहा है?
- सर, वही तो कटानी है.... हमारा ड्राइवर मिमियाया।
- बहुत अच्छे..... निकालो 3986/- रुपए


हो गया बंटाधार। लौटते का टैक्स लगा... ढपोरशंख की लापरवाही की वजह से। नादान बहुत गिडगिडाया कि साहब मेरी तनख्वाह से कट जाएंगे, लेकिन कोई लाख कोशिशों के बावजूज भी उसकी मदद ना कर सका। ना वो ख़ुद, ना मैं, ना वेद और रोहित सिखोला। तिगुना टेक्स लगा।

RTO से बातचीत और बहस के क्रम में मेरा गला बैठ चुका था। हम वहां से आगे बढ़े और सुबह 10 बजे हम ऋषिकेश में थे। गला ज़रूर ख़राब था लेकिन हम समय पर चल रहे थे। तभी पता चला कि अभी तो ड्राइवर को पहाड़ का लाइसेंस और ग्रीन कार्ड बनवाना है जिसके बिना टैक्सी ऊपर नहीं जा सकती। हमने सिर पीट लिया।

मेरे गले की समस्या बढ़ती जा रही थी। मैंने डॉक्टर गुलाब गुप्ता को फ़ोन लगाया। उन्होने सबसे पहले हिदायत दी कि बोलें बिलकुल नहीं। मैंने कहा कि कल से तो मुझे बस बोलना ही बोलना है। डॉक्टर साहब बोले कि कम से कम आज तो चुप रहें और Lorfast-AM की टेबलेट सुबह-शाम लें, साथ में गर्म पानी के गरारे करें और Alex Cough Lozenges की गोलियां चूसें। वाह रे ऋषिकेश, पूरे साढ़े तीन घंटे में तो ड्राइवर का लाइसेंस और ग्रीन कार्ड बना और उसके बाद पूरे ऋषिकेश में कहीं Lorfast-AM और Alex Cough Lozenges नहीं मिली। डॉक्टर की कैमिस्ट से बात भी करा दी लेकिन किसी के पास Alternative Medicine तक नहीं मिला। डॉक्टर मुझे कोई दो Salt देना चाहते थे जिनमें से एक नहीं मिल रहा था। 2 बजे ऋषिकेश से Strepsils चूसते-चूसते कोडियाला पंहुचे, वहां Gmvn के रेस्त्रां में दोपहर 3 बजे खाना खाया, गर्म पानी से गरारे भी किए। नाश्ता हमने किया नहीं था सो पेट की बुरी हालत थी। कोई फ़ायदा नहीं, मेरी आवाज़ ने अब बैठना शुरू कर दिया था। 4:15 पर हम श्रीनगर पंहुचे। उम्मीद थी कि यहां दवा ज़रूर मिल जाएगी लेकिन मिली नहीं। मैंने फिर गुलाब गुप्ता को फ़ोन किया, वो बोले दवा आपको मिल नहीं पा रही.... गले का मामला है मुझे चिंता हो रही है क्योंकि खाना भी आप बाहर का खा रहे हैं और ऊपर तो ठंड भी अच्छी-खासी होगी। ऐसा कीजिए आप वहीं किसी डॉक्टर को दिखा दीजिए। और अपना ख्याल रखिए।

कौन सा डॉक्टर मिलेगा इस समय? मैं श्रीनगर के जैन केमिस्ट पर था सो उन्ही से पूछ लिया। पता चला कि आज तो रविवार है इसलिए डॉक्टर का मिलना मुश्किल है। मुझे तब पहली बार डर सा लगा। ये क्या है गया मुझे? संयोग से वहां खड़े एक सज्जन ये पूरा प्रकरण देख और सुन रहे थे। बोले, माफ़ कीजिएगा! मेरा नाम संजय है, मैं दिल्ली से ही हूं और इत्तेफ़ाक से एक डॉक्टर हूं। दरअसल कल आडवाणी जी गंगोत्री कपाट खुलने के मौके पर वहां जा रहे हैं और उसी काफिले में यहां के एक स्थानीय नेता भी शामिल हो रहे हैं, मैं उनका फैमिली डॉक्टर हूं और उन्ही के लिए Vaccine लेने आया था। आप एक काम कीजिए Azithomycin 500 और Montair- lc की एक-एक गोली ले लीजिए। Azithomycin 500 तीन दिन और Montair- lc पांच दिन। आपको आराम मिलेगा। मरता क्या ना करता। मैंने वही किया। दवा लेकर लगा कि हां, अब दवा मिल गई है अब तो ठीक होना शुरू हो जाऊंगा।

पहले सोचा कि अब आज के लिए श्रीनगर में ही रुक लिया जाए। ड्राइवर को भी बीच-बीच में झपकी सी आ जाती थी, लेकिन ड्राइवर बोला कि मुझे कोई परेशानी नहीं है, अगर आप आगे चलना चाहें तो चल सकते हैं। मैंने सोचा कि चलों एक घंटे का रास्ता है यहां से रुद्रप्रयाग का, वहीं चलकर स्टे करते हैं, सुबह जल्दी निकल लेंगे जोशीमठ के लिए। एंटीबायोटिक के साथ मैने एंटीएलर्जिक भी ली थी सो मुझे नींद आने लगी। कुछ ही दूर चलकर कालियासौंड़ पर एक ज़ोरदार आवाज़ हुई। मैं और वेद हड़बड़ागए। ड्राइवर भी सकपका गया। वो अभी-अभी देहरादून के रोहन मोटर्स से Maruti Alto निकलवाकर ला रहे थे। उन्होने हमारे ड्राइवर से ओवरटेक मांगा। खिड़की के शीशे बंद होने की वजह से ड्राइवर हार्न सुन नहीं पाया या क्या मालूम वो फिर सो रहा था। जैसे ही Alto बराबर से ग़ुज़रने लगी, हमारा ड्राइवर हड़बड़ा गया। नतीजा, अनकी Alto हमारी Innova से रगड़ती हुई चली गई। Alto का पिछला दरवाज़ा और उसकि बाद वाला पैनल अंदर धंस गया। दोनों एक दूसरे की ग़लती बताने लगे। लेकिन वो लोकल थे, रसूखवाले थे। कोई प्रबंधक थे, ज.उ.मा.वि श्रीकोट, नंदकेशरी, चमोली के, जिनकी Alto थी। वो पुलिस को बुलाने लगे, इधर Car Club के दिल्ली में बेठे लोग नहीं चाहते थे कि मामला पुलिस में जाए। Reputation का सवाल था। मैंने ऑफिस फ़ोन लगाया तो बॉस ने कहा अतुल चौहान और रोहित सिखोला को फोन करके मदद लो और मामले का हल निकालो। पूरे ढ़ाई घंटे के High Voltage Drama के बाद मामला 4000/- में निपटा। गनीमत ये रही वहां रास्ता संकरा नहीं था वरना किसी एक की गाड़ी तो गई थी खाई में। ड्राइवर को बचाने के लिए ALTO वालों से, कार क्लब वालों से और अपने Stringer से हिम्मत ना होते हुए भी बातें करनी पड़ीं.... बहस करनी पड़ी। मेरे गले का बुरा हाल था। जबकि डॉक्टर ने कहा था, बोलना मत। ये 4000/- भी ड्राइवर की जेब से गए। ड्राइवर रो रहा था। मुझे लगता है कि या तो किसी पारिवारिक अथवा official मामले को लेकर वो तनाव में था या फिर वो पहाड़ी रास्ते पर पहली बार आया था। उसने आख़िर तक मेरे इन दोनों सवालों के जवाब नहीं दिए।

शाम के 6-7 बज रहे थे। अब मुझे गले में दर्द के साथ हल्का बुखार भी महसूस होने लगा था। जैसे-तैसे हम रुद्रप्रयाग पहुंचे, वहां होटल में कमरा लिया। हम बेहद थके हुए थे। भूख़ लग रही थी लेकिन खाने की हिम्मत नहीं थी। मैं अब तक दो बार गर्म पानी के गरारे कर चुका था। लेकिन आराम एक पैसे का नहीं मिल रहा था। मैंने रात कोई साढ़े आठ-नौ बजे के करीब अपने बॉस को फोन करके अपनी हालत बताने के साथ ही दूसरे दिन के जोशीमठ लाइव की चर्चा की। बॉस ने गले के लिए एहतियात बरतने की सलाह के साथ ही इत्मिनान दिलाया कि अगर तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है तो चिंता मत करो, जोशीमठ वाला कवरेज रोहित सिखोला कर लेंगे। तुम अपना ख्याल रखो।

रात दस बजे हम खाना खाकर लौटे। मैने फिर गर्म पानी मंगाया और गरारे किए। लेकिन आवाज़ खुलने की बजाए और बैठती जा रही थी। वेद पांडे गहरी नींद में सो चुके थे। मैं बाहर बालकनी में आ गया। हवाएं सर्द थीं। शाम को रोहित ने बताया था कि जोशीमठ में बरसात हुई है। मुझे अहसास होने लगा कि आगे बढ़ने पर मेरी तबीयत और बिगड़ सकती है। जोशीमठ में बरसात के साथ ठंड और बद्रीनाथ में कड़कड़ाती सर्दी। मौसम और बाहर के खाने से मुकाबले के लिए मेरा गला बिलकुल भी तैयार नहीं था। गला बिलकुल रुंध चुका था। जब अभी हालत ये तो निश्चित तौर पर आगे बढ़ने पर हालात और बिगड़ेंगे। ऐसे में इसे भगवान की कठिन परीक्षा मानने की भूल मैं नहीं कर सकता था। मैंने निर्णय लिया कि SHOW MUST GO ON, इससे पहले कि लाइव शो बर्बाद हो, बेहतर है किसी को अपनी जगह बुला लिया जाए।

रात 11 बज रहे थे। मैंने दिल्ली में अपने बॉस मिलिंद जी को फ़ोन लगाकर बताया कि सर, मुझे नहीं लगता कि मैं आगे Continue कर पाऊंगा। अच्छा हो अगर आप किसी और को भेज दें क्योंकि अभी तो स्थिति बिगड़ ही रही है, सुधार की प्रक्रिया तो कोसों दूर है। बॉस मेरी आवाज़ से मेरी बुरी हालत का अंदाज़ा लगा चुके थे। बोले, ठीक है तुम वापस आ जाओ। संयोग से संवाददाता रविकांत हरिद्वार में एक स्पेशल स्टोरी कवर करने आए हुए थे। दस मिनट बाद कि Co-ordination से प्रवीण यादव जी का फ़ोन आया कि कल सुबह 6 बजे रविकांत हरिद्वार से रुद्रप्रयाग के लिए निकलेंगे आप वेद पांडे के साथ उन्हे आगे के लिए रवाना करके उनकी गाड़ी में वापस लौट आइए। तुरंत ही रविकांत का भी फ़ोन आ गया, रविकांत हंसने लगे। बोले- स्क्रीन पर शेर की तरह दहाड़ने वाले एंकर को मिमियाते सुनकर बड़ा मज़ा आ रहा है। उन्होने मेरी वो मिमियाती आवाज़ रिकार्ड भी की। मैं भी हंस दिया।

मेरा दिल अफ़सोस से भर उठा था। मुझे वापस जाना होगा। मैंने उसी वक़्त वेद पांडे को जगाकर अपनी वापसी की ख़बर दी। वो भी स्तब्ध रह गए। थोड़ी देर तक खामोश बैठने के बाद हम दोनों सो गए। सुबह आंख खुली तो वेद भाई नब्ज़ पकड़कर मेरा बुख़ार देख रहे थे। बोले- कल रात लग रहा था तुम्हे वापस नहीं जाना चाहिए था लेकिन अब लग रहा है शायद तुम्हारा फ़ैसला सही था, तुम्हे तो Fever भी है। दवा खाने से पहले मैंने चाय के साथ तीन मट्ठियां खाईं। मट्ठियां वेद पांडे गाज़ियाबाद की किसी मशहूर दुकान से खरीदकर ले गए थे। वैसे भी अब बाहर का खाने से मुझे बचना था।

सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे। रविकांत का फ़ोन आया कि वो ऋषिकेश से आगे तक निकल आए हैं। अनुमान के मुताबिक उन्हे हम तक पहुंचने में वहां से तीन-साढ़े तीन घंटे लगने थे। मैने वेद पांडे से कहा कि चलो एटीएम तक चलते हैं, आपको बाक़ी की Production Money सौंपे देता हूं। एक बात ऊपर बताना भूल गया, वो ये कि एक दिन पहले जब मैं श्रीनगर के आप-पास था तो रुद्रप्रयाग के वरिष्ठ पत्रकार श्याम लाल सुंदरियाल जी का फ़ोन ऐसे ही आ गया। पूरे साल भले ही उनसे बात ना हो लेकिन बद्री-केदार के कपाट खुलने से पहले वो नियम से मुझे फ़ोन करके ज़रूर पूछते हैं- आ रहें हैं क्या अनुराग जी? इस बार भी उनका यही सवाल था। मैंने रुंधे हुए गले से कहा- आ रहा हूं दादा... बीच रास्ते में हूं... रुद्रप्रयाग पहुंचने वाला हूं.. उधर से आवाज़ आई कि कौन बोल रहा है? अनुराग जी से बात करनी है। मैंने लाख समझाया कि दादा मैं ही बोल रहा हूं पर वो नहीं माने और फ़ोन काट दिया। इस बार मैंने फ़ोन मिलाया और उन्हे बताया कि मैं अनुराग ही बोल रहा हूं.... आ रहा हूं... बीच रास्ते में हूं... रुद्रप्रयाग पहुंचने वाला हूं.. श्याम जी बोले- अनुराग भाई, आपकी आवाज़ साफ़ नहीं आ रही... लगता है नेटवर्क में कोई गड़बड़ है... आप रखो मैं करता हूं। मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही उन्होने फ़ोन काट दिया। फिर तुरंत उनका फ़ोन आया तो मैंने उन्हे अपने गले की स्थिति से अवगत कराया। मैंने उनसे कहा कि मैं रुद्रप्रयाग पहुंचकर उन्हे फ़ोन करता हूं। लेकिन गाड़ी के Accident और गले की परेशानी के चक्कर में मैं रुद्रप्रयाग आकर श्याम जी को फ़ोन करना ही भूल गया।

अब जब हम ATM के लिए निकल रहे थे तो फिर उनका फ़ोन आ गया। ATM पर उनसे मुलाकात हुई। बोले- मुझे लगा आप बिना मिले ही आगे निकल गए शायद। फिर उन्हे भी पूरी कहानी सुनाई। वो ढ़ांढस बंधाने लगे। बोले- सब ठीक हो जाएगा, चलिए पास ही में कोटेश्वर महादेव का मंदिर है, दर्शन कीजिए लाभ मिलेगा। रविकांत को आने में समय था, सो हम श्याम जी के साथ चल दिए। मैं इससे पहले भी लगभग बद्रीनाथ की अपनी हर यात्रा में कोटेश्वर महादेव ज़रूर जाता हूं। दिव्य मं
दिर है ये। गुफा में अड़तीस करोड़ देवी-देवताओं की स्वतः उत्पन्न मूर्ति चिन्ह और उनपर प्राकृतिक रूप से टपकता पानी। यहां पहली यात्रा में खींचा गया गुफा मंदिर का चित्र भी दे रहा हूं... हमने कोटेश्वर महादेव के दर्शन किए और उसके बाद मंदिर के मुख्य महंत शिवानंद जी से भेंट करने मंदिर प्रांगण में आ गए। बातचीत में शिवानंद जी को मेरे गले की समस्या का पता चला। बोले- अरे नहीं-नहीं आप वापस नहीं, बद्रीनाथ ही जाएंगे... अभी ठीक किए देता हूं आपको। उन्होने भभूति (राख) का मिश्रण सा दिया और बोले, इसे चबा-चबा कर खा लीजिए और दो घंटे तक पानी मत पीजिएगा। मैंने उनसे क्षमा मांगी और कहा कि मैं जल्दी से जल्दी दिल्ली पहुंचकर अपने डॉक्टर को ही दिखाना चाहूंगा। शिवानंद जी थोड़ी देर तक विश्वास के साथ आग्रह करते रहे। फिर बोले, जैसी आपकी मर्ज़ी। यहां उनसे क्षमा मांगता हूं। लेकिन मैं बेहद डरा हुआ था और कोई रिस्क लेना नहीं चाहता था।

प्रसाद लेकर हम वहां से वापस लौट आए। GMVN रुद्रप्रयाग में दोपहर का खाना खाया। रविकांत होटल पहुंच चुके थे। मेरे लौटने का समय आ गया था। रविकांत से गले मिलकर बस इतना ही कहा कि मुझे नहीं तुम्हे बुलाया था बद्री विशाल ने। रविकांत बोले, आपका भी प्रणाम कह दूंगा बद्री बाबा से। मैंने कहा- मत कहना, उनसे मैं ख़ुद ही निपट लूंगा। कहकर बद्रीनाथ मंदिर की दिशा में एक पल को निहारा और रविकांत की इंडिका में वापस हो लिया।

वापसी का सफ़र बेहद अफ़सोस और कष्ट भरा रहा। मैं उस रास्ते से वापस लौट रहा था जिसपर आगे बढ़ने पर मुझे भगवान बद्री विशाल के दर्शन होते। लेकिन शायद बद्री विशाल ने मुझे नहीं रविकांत को बुलाया था...

...और हां, जो लोग मेरी तबीयत को लेकर फिक्रमंद हैं उन्हे बता दूं कि मैं दिल्ली लौटते ही डॉक्टर गुलाब गुप्ता से मिल चुका हूं। गले का इंफेक्शन था। ठीक होने में समय लगेगा। मेरा वापसी का फैसला बिलकुल ठीक था। डॉक्टर की सलाह पर मुझे कम से कम तीन दिन खामोश रहकर गले को आराम देना होगा।