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Monday, June 21, 2010

मैं भी तो कविता कहता था।

सालों बाद कोई कविता लिखी थी... यही कोई दस साल बाद... मन के दर्द सहते विचार उद्धेलित होकर जमा हो गए थे, उन्ही के बिखराव को शायद कविता कहने की यह भूल भी हो सकती है...आज इसे लिखे जाने के तीन साल बाद पढ़ा तो कुछ लाइनें और उभर आईं...

कविता कह लीजिए या कुछ और..., जो भी है, प्रस्तुत है-



मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।।

जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।

अब कर्ज़ कई, अब मर्ज़ कई,
संग उम्र के बढ़ते फ़र्ज़ कई,
जीवन धुन, तानें बिगड़ गईं,
एक मुखड़े की हैं तर्ज़ कई,
जब अपनी धुन में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।


जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!

Thursday, June 17, 2010

"यार, यहां पर बड़ी Politics हो रही है।"

मुझे नफ़रत हैं ऐसे लोगों से। लेकिन क्या करें, कुछ लोगों की दुकानदारी ही ऐसे चलती है। वो उस मछली के किरदार में होते हैं जो पूरे तालाब को सड़ा देती है। जिनका स्वार्थ ही दूसरों को छोटा साबित करके ख़ुद को बड़ा बनाना है। और आख़िर में अपनी आदत से मजबूर होकर वो अपने ज़मींदोज़ होने का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं।

आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी दफ़्तर में काम करते हों। ज़रा बताइए, कितने लोग हैं आपके दफ़्तर में जो अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं। अरे, लोग जिसकी नौकरी करते हैं, उसी को गाली देते फिरते हैं। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। लोग परस्पर किसी भी मुद्दे पर असहमत हों लेकिन अपने नौकरी और बॉस को लेकर कामोबेश सभी एक दूसरे से सहमत होते हैं। सभी का ‘संस्थागत मानसिक स्तर’ ख़तरे के निशान से ऊपर ही रहता है। सरकारी नौकर अपने अधिकारी से परेशान और प्राइवेट वाले अपने बॉस से। ये ना नौकरी के सगे होते हैं और ना अपने।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ऑफ़िस में लोगों को अपना बॉस हिटलर का बेवकूफ़ क्लोन क्यों नज़र आता है? कर्मचारियों का मानना होता है कि बॉस तो कर्मचारियों को मज़दूर समझता है। दफ़्तर के सर्वाधिक नाकारे लोग बॉस को गाली देते फिरते हैं। जिनके पास काम होता उन्हे बॉस और सहकर्मियों को गाली बकने का समय नहीं मिल पाता, लिहाज़ा वो घर आकर अपनी व्यस्तता का frustration अपने बीवी-बच्चों पर निकलाते हैं। बॉस कितना भी अच्छा क्यूं ना हो कभी प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाता।

पता नहीं क्यूं, हर तरह का कर्मचारी अपने को शोषित मानता है। जो कुछ काम नहीं करते वो कहते फिरते हैं कि मेरी प्रतिभा को यहां कुचला जा रहा है, मुझे मौक़ा ही नहीं दिया जाता, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा। कोई और धंधा पानी शुरू करूंगा। और जिनसे काम लिया जाता है, वो भी यही कहते घूमते हैं कि मेरा शोषण हो रहा है, वेरी वॉट लगा रखी हैं, गधों की तरह मुझसे काम लिया जाता है, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा।

ना जाने क्यूं कुछ लोग अपने जिस दफ़्तर को जहन्नुम बताते फिरते हैं, उसे ये जानते हुए भी नहीं छोड़ना चाहते कि उनके ना रहने से कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। वो जन्म भर की तरक्की की उम्मीद वहीं रहकर करते हैं, उनकी प्रतिभा भी पहचान ली जाए, सारे महत्वपूर्ण काम उन्ही से कराए जाएं, उनकी तनख्वाह भी उनके मन मुताबिक हर साल बढ़ा दी जाए, उनके अलावा किसी और को भाव ना दिया जाए और फिर वो ग्रैचुइटी के साथ पेंशन भी वहीं से पाएं। अरे भाई, आप इतने ही प्रतिभावान हैं तो कहीं और किस्मत क्यों नहीं आज़माते। अपनी नौकरी को गाली भी बकेंगे और रहेंगे भी वहीं। ये भी ख़ूब है।

कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि सबसे ज़्यादा काम तो वही करते हैं, फिर भी उनकी तनख़्वाह इतनी कम है और बाक़ी सारे तो बस गुलछर्रे उड़ाने की सैलरी पाते हैं। काम मैं करता हूं और पैसे दूसरों को मिलते हैं। .....छोड़ूंगा नहीं।

ऐसे ही कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर कर बैठते हैं। क़ाबलियत के दम पर किसी से आगे निकलने के बजाए, टांग अड़ाकर दूसरों को गिराने की कोशिश करते हैं। ना ही वो बड़े बन पाते हैं और हमेशा इस ग़लतफ़हमी में भी रहते हैं कि उन्होंने दूसरों को बड़ा नहीं बनने दिया।

राजनीति.......! यार, यहां पर बड़ी politics हो रही है। उनकी ज़ुबां पर बस यही डॉयलाग होता है। और politics सच में शुरू हो जाती है।

यहां राजू श्रीवास्तव का एक चुटकुला सार्थक रहेगा। राजू भाई कहते हैं कि जैसे पुरातन काल के अवशेष आज ज़मीन से निकलते हैं और फिर उनका अध्ययन होता है, वैसे ही आज की चीज़े कई सौ साल बाद निकलेंगी। कई सौ साल बाद जब ज़मीन से CD और DVD निकलेंगी तो अनुमान लगाया जाएगा कि ये निश्चित ही मनुष्य के खाना परोसने की थाली रही होगी। फिर कोई कहेगा कि अगर ये थाली रही होगी तो इसमें छेद कैसे हो गया है? .............फिर शोध का नतीजा निकलेगा कि मनुष्य जिस थाली में खाता था उसी में छेद करता था।

Monday, June 14, 2010

इमोश्नल अत्याचार....!


अभी-अभी एक हवाईजहाज़ सिर के ऊपर से उड़ कर निकला है। साल भर पहले जब पहली बार सचमुच हवाईजहाज़ में बैठा तो एहसास हुआ कि बचपन में इस हवाईजहाज़ ने भी कितना इमोश्नल अत्याचार किया है हम पर। मन में, पापा से मिलने की कितनी बड़ी उम्मीद जगाई थी इसने, जो आगे चलकर जीवन की उलझनों को सुलझाने में पता नहीं कब और कहां गुम हो गई।

बचपन में स्कूल जाते हुए नन्ही बहन पूछा करती थी कि ‘भईया, पापा हमारे पास नहीं आ सकते तो क्या हम भी पापा के पास नहीं जा सकते?’

- ‘पापा, भगवान जी के पास चले गए हैं पागल।’
- ‘तो क्या भगवान जी के पास अपन नहीं जा सकते, बोलेंगे हम पापा से मिलने आए हैं, हमारे पापा यहां आ गए हैं। प्लीज़ मिलवा दीजिए हमारे पापा से।’ वो मासूमियत से पूछती।
- ‘जा सकते हैं शायद, प्लेन में बैठकर जा सकते हैं, लेकिन उसके लिए बहुत सारे पैसे लगते हैं। एक दिन जाएंगे, ज़रूर।’
- ‘नहीं.... अभी चल ना मुझे मिलना है पापा से।’

और नन्ही बहना आसमान में उड़ते एरोप्लेन को देखकर रोने लगती। स्कूल पास आते ही मैं उसे टीचर का डर दिला कर चुप करा देता। वो आंसू पोछकर चुप तो हो जाती थी लेकिन उसकी उसकी सुबकियां क्लॉस में दाखिल होने तक जारी रहतीं। ऐसा लगभग रोज़ ही होता था। क्योंकि स्कूल के पास ही खेरिया हवाईअड्डा था और थोड़े-थोड़े अंतराल पर वहां से हवाईजहाज़ होकर गुज़रते थे। किसी-किसी रोज़ तो बहन पापा को याद करके रोते-रोते ‘मम्मी के पास जाना है’ की ज़िद पकड़ बैठती थी। फिर उसे उस रिक्शे में ही वापस भेजना पड़ता था।

मैं तब चौथी क्लास में था और बहन पहली क्लास में। हम दोनों भाई-बहन एक साथ साईकिल रिक्शा में स्कूल जाते थे। स्कूल, आगरा का केन्द्रीय विद्यालय न. 1। घर से कोई आठ किलोमीटर दूर।

पिता के देहांत के बाद हम नागपुर से आगरा चले आए थे। हालत ही कुछ ऐसे बने कि नाना-नानी मां को उसके ससुराल वालों के साथ नहीं छोड़ सकते थे। उन्होने कभी ख़ुद भी इच्छा जाहिर नहीं की मां को अपने साथ ले जाने की। वजह थी पापा की नौकरी। पापा के बाद किसे मिले उनकी नौकरी। दादी चाहती थीं कि नौकरी मेरे बेरोज़गार चाचा को मिले। नाना-नानी चाहते थे कि नौकरी मेरी मां को मिले, जिससे हम भाई-बहन की परवरिश ठीक से हो जाए। हालांकि मां ने पापा के जीते-जी कभी घर से बाहर निकल कर नौकरी के बारे में सोचा तक नहीं था। हालात सब कुछ करवा देते हैं, नौकरी मां को मिली। और मां के ससुराल वाले इस बात से नाराज़ होकर इस हाल में उसे और अकेला कर गए। पिता की मृत्यू के बाद मां की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी। 28 साल की थी मेरी मां जब पापा इस दुनिया से गए। मेरी बहन को तो पापा का चेहरा तक याद नहीं। उनके साथ बिताया एक पल भी याद नहीं। मेरी यादों में फिर भी पापा के लाड़-प्यार के कुछ धुंधलके ज़रूर आज भी उमड़ते घुमड़ते हैं।

हार्ट अटैक आया था पापा को। रात को सोते समय पलंग से गिर पड़े थे। मां की गोद में आख़िरी सांस ली। मां ने पापा के चेहरे पर पानी के छींटे मारे, हाथेलियों और तलवों को रगड़ा, लेकिन पापा फिर नहीं जागे। मुझे नहीं पता था पापा अब नहीं लौटेंगे। बहन को तो इतना भी नहीं पता था। हम दोंनो बस मां को देखकर रोए जा रहे थे। मुझे लगा पापा बीमारी में बेहोश हो गए हैं, हॉस्पिटल से ठीक होकर आ जाएंगे। लेकिन वो ना ठीक हुए ना वापस आए।

उनके दाह संस्कार का वो पल मेरे बालमन के लिए सबसे ज्यादा पीड़ादायक था। पापा मेरे सामने थे। मौन। चिरनिद्रा में। वो जाग जाते तो सब ठीक हो जाता। लेकिन....। मैंने रोते हुए पता नहीं किससे कहा था कि पापा के उपर इतनी भारी लकड़ियां मत रखिए प्लीज़! पापा को बहुत चोट लग रही होगी, दर्द हो रहा होगा। मुझे वहां से कुछ देर के लिए हटा दिया गया। फिर कुछ देर बाद पापा को मुखाग्नि देते हुए समझ नहीं पा रहा था कि पापा हमें छोड़कर क्यूं चले गए। जबकि टॉयलेट और ऑफ़िस जाने के सिवा पापा कभी हमें अकेले नहीं छोड़ते थे।

आजतक नहीं समझ पाया हूं कि पापा क्यूं चले गए। आज भी पग-पग पर पापा की ज़रूरत महसूस होती है। उनकी कमी खलती है। उम्र और समझ के साथ मेरी और बहन की वो उम्मीद भी कब की टूट चुकी है कि पापा से मिलने हवाईजहाज़ से जाना मुमकिन है।

साल भर पहले जब पहली बार हवाईजहाज़ में बैठा तो सोचा कि इस हवाईजहाज़ ने भी कितना इमोश्नल अत्याचार किया है हम भाई-बहन पर। और मुस्कुरा दिया। मैं ज़मीन से कई हज़ार फीट की ऊंचाई पर था, लेकिन पापा से फिर भी बहुत दूर.....। आज भी जब कोई हवाईजहाज़ उड़ता देखता हूं तो बचपन की उन यादों का मेला लग जाता है कुछ देर के लिए।

Saturday, June 12, 2010

मानो या ना मानो... रावण भी एक ब्लॉगर था।


Facebook पर रवीश कुमार जी का स्टेटस था- रावण के चरित्र में महानता के कोई लक्षण थे? क्यों लोग रावण से भी सहानुभूति रख लेते हैं? क्या किसी खलनायक के महान होने के लिए ज़रूरी है वो मारा भी जाए तो लोग आंसू बहाये।

इस पर मेरा कमेंट था-... रावण शायद इसलिए महान नहीं हो सका रवीश जी क्योंकि उसकी खलनायकी के अलावा कोई पक्ष उकेरा ही नहीं गया। हमने जन्म लेने के बाद अगर हनुमान जी के हाथ में बांसुरी देखी होती तो हम उन्हे उसी रूप में पूज रहे होते... केवल चोरी ही चोर के व्यक्तित्व का शेड नही होता... और फिर कालांतर में वही चोर रामायण लिखकर महान भी बन जाता है।

हमारी धार्मिक आस्थाएं बड़ी बेलगाम है साहब। अब क्या करें, राम और रावण को हमने जैसा पढ़ा उन्हे वैसा ही समझने लगे, मानने लगे और रावण का पुलता फूंक कर राम की पूजा करने लगे। मामला धर्म का था इसलिए पाप लेने के डर से किसी ने कोई विशलेषण भी नहीं किया। आज चोर, डकैत, अपहरणकर्ता और यहां तक कि आतंकवादी तक, पकड़े जाते हैं, सज़ा काटते हैं, उन्हे अपनी ग़लती का अहसास होता है और उनमें से कई काटने के बाद समाज की मुख्यधारा का हिस्सा तक बन जाते हैं। लेकिन poor man रावण, राम के हाथों मरने के बाद भी हर साल सोनिया गाधी से लेकर पप्पु, बंटी और बबलू के हाथों जलाकर मारा जाता है। कहते हैं बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है। सच बताना, जीत गई क्या अच्छाई?

सवाल रावण से सहानुभूति रखने का भी नहीं है। सवाल हमारी आस्था और अनास्था का है। इसी देश में जहां रावण को जलाया जाता है वहीं देश के कई हिस्सों में उसके ज्ञान स्वरूपों की पूजा भी होती है। ज़रा सोचिए तो सही कि अगर भगवान लोगों ने किंवदंतियों के आधार पर जो तब किया अगर वो आज करते तो क़ानून में उनके किए के लिए सज़ा का क्या प्रावधान होता? क्या भगवान शिव का अपने पुत्र की गर्दन धड़ से अलग करना और फिर एक बेगुनाह हाथी का सिर काट लेना अपराध की परधि में नहीं आता? क्या इंद्र का अपसराओं के साथ रास-लीला करना उस वक़्त की Rave Party नहीं होता होगा? क्या राम का बाली को छल से मारना और अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ अन्याय करना न्यायसंगत ठहराया जा सकत है? उदाहरण और भी हो सकते हैं। अपराधी तो ये भी हुए, या फिर इसलिए नहीं हुए क्योंकि इन्होने देवकुल में जन्म लिया था, दैत्यकुल में नहीं। रावण तो दैत्यकुल से था, उससे खलनायकी के सिवाए उम्मीद भी क्या की जा सकती थी, लेकिन शिव, इंद्र और राम को खलनायकी की आवश्यकता क्यों कर पड़ गई? इस पर एक सार्थक बहस हो सकती है, लेकिन फिर कभी...।

चलिए, मैं कहता हूं कि रावण भी एक ब्लॉगर था, ब्लॉग लिखता था। आप मानेंगे क्या? नहीं मानेंगे ना। लेकिन अगर रामायण में ऐसा लिखा होता तो मान लेते। मान लेते ना। अरे बाप रे! ये मैंने क्या कह दिया, ऐसा होता तो हर विजयदशमी पर रावण के पुतलों के साथ हम ब्लॉगरों के पुतले भी फूंके जाते।

ये समाज भी बड़ा दिशाहीन है साहब। अपने विवेक से काम लेने और अपने पर विश्वास कायम करने की हिम्मत ही नहीं है लोगों में। किसी और के इशारों पर नाचना सहर्ष मंज़ूर है। यहां बाबा रामदेव के भी अनुयायी हैं, श्रीश्री रविशंकर के भी, संत आसाराम के भी और स्वामी नित्यानंद और भीमानंद के भी।

तो सवाल सहानुभूति का नहीं, आस्था का है, विश्वास का है। नटवरलाल हमारे देश के लिए अपराधी था और रहेगा। जबकि अमेरिका ने कहा था कि नटवरलाल जैसे दिमाग देश की तरक्क़ी में लगाए जाने चाहिए। अब आप रावण की तरह नटवरलाल के पुतले फूंकिए या उसे सौ साल की सज़ा दीजिए। अमेरिका में होता तो क्या शान होती अगले की।

मैं कोई रावण का भक्त नहीं हूं लेकिन मैं राम से भी सहमत नहीं हूं।

Thursday, June 10, 2010

दूसरों की पोस्ट पर गाली कौन बकता है..?

मेरे एक मित्र आजकल परेशान हैं। सामाजिक सरोकारों के चलते नाम का ख़ुलासा नहीं कर सकूंगा। अपने ब्लॉग पर अक्सर क्रांतिकारी विचार परोसते हैं। व्यवस्था पर चोट करता लेखन होता है उनका। लेकिन आजकल बड़े आहत हैं। आहत हैं, ऊल-जलूल टिप्पणियों से। उनकी पोस्ट पढ़कर उनकी सराहना करने वालों की भी कमी नहीं है। लेकिन गाली बकने वालों का क्या करें? मेरी तरह टीवी में काम करते हैं। सो ज़्यादातर टिप्पणियां तो उनके पेशे को अपमानित करने वाली होती हैं। कि अरे साहब ये टीवी नहीं ब्लॉग है, यहां कुछ गंभीर परोसिए। अरे आप ब्लॉग लिखने में समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं, जाकर कोई नाग-नागिन या भूतप्रेत की ख़बरें लिखो। बड़े भगत सिंह बनते हैं, फांसी पे चढ़िएगा का? कभी-कभी तो लोग गंदी-गंदी गालियां तक लिखकर भेज देते हैं। मित्र उन्हे डिलीट करते फिरते हैं।

फिर मैंने उन्हे अपने अनुभव के आधार पर बताया कि सबसे पहले तो अपने ब्लॉग पर comment moderation लगा लो, जिससे गालियां ससम्मान वापस लौटा सको। दूसरा इन गाली बकने वालों पर तनिक भी ध्यान मत दो, क्योंकि ये अभागे और अनाथ होते हैं। पक्के लावारिस। बिना नाम के गाली बकते हैं। noreply-comment@blogger.com की ID से। blogger.bounces.google.com के पते से और Anonymous के छद्म नाम से। ये वो हैं जो ख़ुद तो सार्थक लिख नहीं सकते, लेकिन सार्थक लिख रहे ब्लॉगरों को गाली बक कर स्वयं में गौरवान्वित होना चाहते हैं। ये बड़े ख़ुश होते हैं कि देखा, बैंड बजा दी ना। ये सही मायने में आलोचक होने की गलतफ़हमी के गर्भ में सड़ते रहते हैं। साहित्य की जननी इनके हाथ में कलम देखकर ख़ुद को लज्जित महसूस करती होगी।

मैं ऐसे टिप्पणीकारों को साहित्यिक सौहार्द को भंग करने वाले आतंकवादी कहता हूं। ये दूसरों की पोस्ट पर अपनी गाली देख कर बिलकुल वैसे की ख़ुश होते हैं, जैसे कोई आतंकवादी अपने किए विध्वंस की तस्वीर दूसरे दिन के अख़बार में देख कर ख़ुश होता है। शर्म आनी चाहिए ऐसे टिप्पणीकारों को जो दूसरों को प्रोत्साहित करने की बजाए इरादतन हतोत्साहित करते हैं।

उम्मीद से हूं कि मेरे मित्र भी जल्दी ही मेरी तरह ऐसी टिप्पणियों पर ध्यान ना देने की आदत डाल लेंगे। क्या करें साहब साहित्य के गांव में अब भू-माफ़ियाओं की घुसपैठ बढ़ने लगी है।

Wednesday, June 9, 2010

आप ज़िदा हैं या मर गए...? हो जाए एक छोटा सा टेस्ट...


बहुत मुश्किल काम नहीं है ये जानना कि हम ज़िदा हैं या मर चुके हैं। नहीं...नहीं...ये पुनर्जन्म पर किसी अति महत्वाकांशी टीवी चैनल का टोने-टोटके वाला शो नहीं है, बल्कि ख़ुद अपने आप से आपका साक्षात्कार है। तो हो जाए एक छोटा सा टेस्ट-
1- क्या कभी बिलकुल अकेले में बैठकर ख़ूब रोने का मन करता है आपका? ऐसा लगता है क्या कि चलो दुनिया को तो एहसास दिला दिया कि हम हिम्मत नहीं हारे हैं, हमारी ताकत, हमारा हौंसला किसी भी विपरीत परिस्थिति में हमारे साथ है, लेकिन अब कुछ देर के लिए किसी नितांत ख़ाली साउंड प्रूफ़ कमरे में जाकर ज़ोर-ज़ोर से रो लें। इतनी ज़ोर से कि कमरे की दीवारें थर्रा जाएं, लेकिन आवाज़ बाहर ना जाए?

2- आप कहीं से अपने घर तक रिक्शा में आएं हैं। लगते हैं तीस रुपए लेकिन आपने रिक्शेवाले से कहा कि बीस में चलना है तो बोलो, और वो किसी मजबूरी के चलते तैयार भी हो गया। सूरज 46 डिग्री पर जला रहा है और रिक्शावाला पसीने से तरबतर आपको आपके घर छोड़ता है। क्या आपने उससे कभी पूछा है- ‘भाई, रुको थोड़ा पानी पीकर जाना।’

3- क्या कभी अपने घर काम करने वाली नौकरानी की बच्ची को, अपने बच्चे का वो वाला खिलौना उठाकर दिया है जो उसे भी बहुत पसंद है और आपके बच्चे को भी?

4- मैंने ये तस्वीनौएडा में सेक्टर 26 के एक मैरिज होम के पास खिंची है। इसे ऐसे जूठी प्लेट चाटते देखकर मैं ख़ुद को रोक नहीं सका। अपनी कार वापस लौटाकर लाया इसकी फ़ोटो खिंची और इसे दस रुपए देकर पास खड़े कुलचे-छोले के ठेले से खाना खिलाया। आस-पास के लोग मुझे ऐसा करते देखकर हंस रहे थे। क्या आपने कभी हंसने वालों की परवाह किए बगैर किसी भूखे को खाना खिलाया है? मंदिर में जाकर ग़रीबों को तो सब खिलाते हैं, लेकिन बिना किसी प्रयोजन के अपनी व्यस्तता से समय निकालकर किसी को दिया है?

5- सड़क पर किसी के एक्सीडेंट के बाद उसे तड़पता देखकर, पुलिस केस कि परवाह किए बिना, क्या आप मदद के इरादे से कभी रुकें हैं?

6- सब्ज़ीवाले या फिर किसी दुकानदार को खरीददारी के बाद आपको लौटाने थे साठ रुपए, लेकिन ग़लती से उसने आपको लौटा दिए सत्तर रुपए। क्या आपने कभी अपने पास ज़्यादा आ गए दस रुपए उसे वापस किए हैं?

7- जब आप मॉल घूमने जाते हैं और आपको किसी का गोलूमोलू बच्चा बड़ा प्यारा लगता है तो आप प्यार से उसके गाल पर चुटकी ले लेते हैं। ट्रैफिक सिग्नल पर जब आपसे कोई महिला अपने बच्चे को गोद में लेकर भीख़ मांगती है तो क्या उसकी गोद में चिपके बच्चे के प्यारा लगने पर आप उसके गाल पर थपकी दे पाते हैं? या किसी भी गंरीब के बच्चे के साथ क्या आप ऐसा कर पाते हैं? (माफ़ कीजिएगा, नेता लोगों का अक्सर ग़रीब के बच्चे को गोद में उठाकर दुलारना यहां मान्य नहीं होगा)

8- किसी होटल या रेस्त्रां में खाना खाने के बाद आप बैरे को पांच-दस रुपए टिप में ज़रूर देते हैं। लेकिन क्या उस रेस्त्रां में रखे किसी NGO के ड्रॉप बॉक्स पर आपका ध्यान गया है, जो विगलांग बच्चों, कैंसर पीड़ितों अथावा मानसिक रोगियों कि मदद के लिए रखे गए हैं? क्या आपने उसमें कभी पांच या दस रुपए डाले हैं?

9- हॉस्पिटल में इलाज के बाद या घर में बीमारी के बाद बची हुई दवा क्या हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर रखे ड्रॉप बॉक्स में आपने कभी डाली है, जिस पर लिखा होता है- ‘ग़रीबों और असक्षमों की मदद करें, बची हुई दवा इस बॉक्स में डालें’?

10- दफ़्तर से हारे-थके लौटने के बाद भी क्या कभी बिना कहे अपने बूढ़े माता-पिता के पैर दबाए हैं? और दफ़्तर से कमरतोड़ थकावट लेकर लौटने के बाद मन ना होते हुए भी अपने साथ खेलने की अपने बच्चे की ज़िद पूरी की है?
इनमें से किन्हीं पांच सवालों का जवाब भी अगर ‘हां’ में है, तो, यक़ीन जानिए आप अभी ज़िंदा हैं..... मरे नहीं हैं।
नोट- बड़े ही अफ़सोस के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि ख़ुद को इन सवालों के जवाब देने के बाद मैंने पाया कि मैट्रोपॉलेटियन शहर के समाज की संदिग्ध परिस्थितियों के चलते, मैं 'मर' चुका हूं।

Tuesday, June 8, 2010

थैंक यू दयाराम...!

पत्थरदिल शहर में किसी की आत्मियता पाना, मनचाहा दूसरा जीवन पाने से कम नहीं है। दयाराम जैसे लोग कहां मिलते हैं आसानी से। संवेदनाएं, भावनाएं, आत्मियता, स्नेह, आत्मसम्मान और उम्मीद, हम टीवी वाले सिर्फ़ ख़बरों में ही ढ़ूंढ पाते हैं। आपस में इन मूल्यों के साथ प्रयोग करने का हमारे पास समय ही नहीं होता। कुछ संगदिल किस्म के हो चले हैं हम लोग। ये हमारे पेशे की मजबूरी भी है।

मंगलवार 8 मई की सुबह मौसम बड़ा सुहाना था। तय हुआ की 11 बजे का बुलेटिन मौसम पर ही करेंगे और स्टूडियो की बजाए बाहर से करेंगे। ऐसे में हम ऑफ़िस के पार्किंग एरिया का इस्तेमाल करते हैं। 11:23 पर बुलेटिन ख़त्म हुआ और मैं स्टूडियों में आने लगा। तभी पीछे तैनात सिक्योरटी गार्ड ने मेरा रास्ता रोक लिया।

-‘सर... ये....!’, कहते हुए एक काग़ज का टुकड़ा उसने मेरी तरफ़ बढ़ा दिया।
-‘क्या है ये...?’, मैंने पूछा।
-‘भेंट है सर आपके लिए..., वो अभी आप समाचार पढ़ रहे थे ना तभी के तभी लिखा है... कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ कीजिएगा।’

11:30 की हैडलाइन्स पढ़ने की जल्दी में मैं कागज़ लेकर पीसीआर आ गया। वो कागज़ के टुकड़े पर लिखा एक पद्द था। उस कागज़ पर लिखा हर शब्द हूबहू यहां लिख रहा हूं-

सोहत ओढ़े श्याम पट, गौर अनोखे गात।।
जिन पायो ‘मुस्कान’ को, धन्य वाहि पितु मात
काले केश बढ़ावहिं शोभा। टाई नील सवहिं मन लोभा।।
रहिहिं अधर सदा मुस्काना। अंग-2 बहु शोभित नाना।।
देश विदेश बखानै खबरा। कातिल नाम सुनत जा घबरा।।
भृकृटि-नैन न जाए बखाना। संक्षेपहिं में समझो कान्हा।।
पुष्ट गात बदन अति सुन्दर। नैन नक्श बहु छटा मनोहर।।
“राऊर नहिं कछु कामना, चाहे जब निकले प्रान।
बस बुझती आखों को दिखें, अनूराग “मुस्कान”।।
From- Gd- Daya Ram



पढ़कर मैं भावुक हो उठा। गार्ड दयाराम ऑफ़िस में कई महीनों से तैनात है, लेकिन मुझे याद नहीं इससे पहले मैंने उसका चेहरा कभी देखा हो। सिक्योरिटी से हमारा वास्ता कम ही पड़ता है। ऑफ़िस में कई गार्ड तैनात हैं, दयाराम भी उनमें से एक है। कौन लगता है दयाराम मेरा? कोई नहीं। लेकिन आज एक आत्मियता का रिश्ता कायम कर लिया उसने मुझसे। ऑटोग्राफ़ मैंने ख़ूब दिए हैं और लोगों ने मेरे साथ फ़ोटो भी ख़ूब खिंचाए हैं। लेकिन दयाराम जैसा प्रशंसक मुझे पहली बार मिला।


सवाल ये नहीं है कि मैं दयाराम की प्रशंसा से गदगद हो गया, बल्कि सच तो ये है कि दयाराम किसी के लिए भी उदाहरण हो सकता है, सबक हो सकता है। प्रशंसा करने की दयाराम की ईमानदारी ने मुझे प्रभावित किया, वरना आज के दौर एक-दूसरे से ईर्ष्या करने, द्वेष रखने और आलोचना करने की व्यस्तता में लोग किसी की प्रशंसा करना ही भूल चुके हैं। प्रशंसा में निंदारस घोलकर उसे कसैला कर चुके हैं। जबकि किसी की भी ज़रा सी प्रशंसा कितना हौंसला, कितना संबल और उत्साह देती है, इसके अहसास से मैं आज भरा हुआ हूं।

वैसे मैंने महसूस किया है कि ज़्यादा पढ़-लिख कर इंसान इतने बड़े क़द का हो जाता है कि फिर उसे बस प्रशंसा पाने की लत लग जाती है, फिर चाहे कोई उसकी झूठी प्रशंसा ही क्यों ना करे, किसी की प्रशंसा करना उसे अपनी शान के खिलाफ़ लगने लगता है। ऐसे में प्रशंसा करने का साहस अब केवल दयाराम जैसे लोग ही कर पाते हैं। जो भले ही कम पढ़े-लिखे हैं, लेकिन अपनी जड़ों से तो जुड़े हैं।

एक दयाराम को अपने भीतर जीवित रख पाने में अभी तक तो मैं सफल रहा हूं। ......और आप....?

Monday, June 7, 2010

15,274 लोगों की मौत, 2 साल की सज़ा?

भोपाल गैस त्रासदी,
15,274 लोगों की मौत,
पीड़ित परिवारों ने लड़ी 25 साल तक लड़ाई,
25 साल बाद फैसला आता है, याद रहे फैसला अभी ज़िला अदालत का है। इस मामले के आठों आरोपियों को धारा 304(A) के तहत दोषी ठहराया गया है, जिसमें अधिकतम 2 साल की सज़ा अथवा पांच हज़ार रुपए जुर्माना या फिर दोनों हो सकते हैं। लेकिन क्या ये न्याय है?

विडंबना है, कि इस देश में रावण के तो दस सिर हैं लेकिन एक सिर वाली न्याय की देवी की आंखों पर भी पट्टी हैं।

Thursday, June 3, 2010

ब्लॉगरों की भी डी-कंपनी... ये हो क्या रिया है?


अरे-अरे भाई लोग ये क्या कर रिए हो...? ब्लॉगिंग में भी गुंडागर्दी कर रिए हैं कुछ खुराफ़ाती। क्यूं भाई... कौन हो आप लोग... नहीं, मेरा मतलब है, क्या चाहते क्या हो आप लोग..? सीनियर ब्लॉगर, जूनियर ब्लॉगर, ये सब क्या सुन रिया हूं भाई? ये क्या तरीक़ा है? भाई लोगों ने अपनी एसोसिएशन भी बना ली है। मियां, कोई हड़ताल-वड़ताल करने का स्टंट भी करोगे क्या? अमां राजनीति करनी है तो Politics में जाओ... ब्लॉगिंग क्यों करते हो यारों।

भाईलोगों की डी-कंपनी सी चल रई दिक्खे। कलम को एके-47 बना लिए हो कै? अरे बावड़ों, जैसे दंबूक सै कागज पै लिक्खा ना जा सकै है ना, वैसे ही कलम से गोड़ी कोनी निकलै है। नी भरोसा तो फ़ायर कर के देख लो फिर। कमल तो हमेशा लिखने के काम ही आवे है। अरे..., लेखक हो...आतंकवादी हो कै? अरे भाया... राजनीति पै लेखन हुआ करे है, लेखन पै राजनीति कोणी।

वैसे jokes apart कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ आतंकवादी आजकल ब्लॉगिंग करने लगे हों? जूनियर ब्लॉगरों ने सीनियर ब्लॉगरों के छक्के छुड़ाए, सीनियर ब्लॉगरों ने जूनियरों की पैंट गीली की..., ये सब क्या है यार? अच्छा लिखो... जम के लिखो... सबको कुछ अच्छा पढ़ने को मिले। यहां गंद मत फैलाओ कलम के सिपाहियों। सिपाही हो सिपाही ही रहो, दाऊद क्यों बनते हो।

यार, तुम लोग भी ना कमाल करते हो। एक दूसरे को ही गाली बक रहे हो। क्यों भाई? अरे, कोई रास्ते में टांग अड़ाने तो आ नहीं रहा तुम्हारे। किसी की बात पसंद नहीं आ रही तो मत पढ़ो, मत करो उसपर टिप्पणी। और करना ही है तो मर्यादा के दायरे में रहकर करो। गाली बक कर क्या साबित करना चाहते हो? प्यार-मौहब्बत, शांति-सौहार्द, सद्भावना-भाईचारे पर ब्लॉग लिखते हो और दूसरों की किसी बात पर खुन्नस खाकर उसे गाली बकते हो। अरे जिसकी बात पसंद नहीं आई उसे भी प्यार से समझा दो यार। तुम सार्थक लिखो इसलिए ही तो तुम्हारे हाथ में कलम है, वरना बंदूक ना होती।

बंद करो ये डी-कंपनी यार।

Wednesday, June 2, 2010

क्या सीता को रावण से प्रेम हो सकता है?


क्या सीता को रावण से प्रेम हो सकता है? क्या रावण के साथ सीता की प्रेमलीला का कल्पना की जा सकती है। क्या कोई सोच भी सकता है कि सीता, रावण के प्रेमपाश में जकड़ सकती हैं या फिर रावण को अपने प्रेमपाश में बांध सकती हैं? फ़िल्म ‘रावण’ अभी रिलीज़ नहीं हुई है लेकिन कोई बता रहा था कि इस फ़िल्म में सीता की भूमिका से प्रेरित ऐश्वर्या राय बच्चन रावण की भूमिका निभा रहे अभिषेक बच्चन के साथ प्रेमालाप में लिप्त नज़र आएंगी। देखो भईया, अव्वल तो फ़िल्म देखे बिना इस टॉपिक पर किसी भी तरह की अटकल लगाना गुनाह-ए-अज़ीम माना जाएगा, लेकिन अगर फ़िल्म में ऐसा दिखाया भी गया है तो क्या...?

फ़िल्म ‘रावण’ में खैर रावण और सीता के बीच प्रेम संबंध दिखाने की ग़लती तो नहीं ही की गई होगी। संभव है, फ़िल्म में अभिषेक बच्चन रावण जितने बुरे बने हों और रावण की अच्छाई में छिपी उसकी बुराइयों को ख़त्म करने के लिए फ़िल्म की नायिका एक चांस लेती हो। क्योंकि कुछ बुराइयों के बिना तो रावण भी पूज्य ही था। फ़िल्म में रावण की तरह अभिषेक ने ऐश का अपहरण किया होगा और भाईलोगों ने उसे सीता अपहरण से जोड़कर हाय-तौबा मचा दी होगी। भई, फ़िल्म का नाम रावण है, अभिषेक रावण बने हैं और वो ऐश का अपहरण कर लेते हैं तो हो गईं ऐश्वर्या सीता। ये ज़रूरी नहीं है।

फ़िल्म ‘रावण’ का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार है। मणिरत्नम ने अगर कोई संवेदनशील सब्जेक्ट लिया भी होगा तो वो उसके साथ पूरा न्याय करने की कोशिश भी करेंगे। लेकिन सीता और रावण के बीच प्रेम की बात सुनना दिलचस्प रहा। राम को भी सीता पर समाज के इसी शक़ ने दुविधा में डाल दिया था। वरना सीता की अग्निपरीक्षा का औचित्य क्या था? मुझे राजकुमार संतोषी की फ़िल्म ‘लज्जा’ याद आ रही है। उस फ़िल्म में कुछ सवाल उठाए गए थे। क्या फ़िल्म ‘रावण’ में उनके जवाब मिल पाएंगे? ‘लज्जा’ में बड़ा बुनियादी सवाल उठाया गया था कि सीता, अपहरण के बाद रावण की अशोक वाटिका में रहीं अर्थात राम से अलग परपुरुष की छाया में रहीं इसलिए उन्हे अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी और अग्निपरीक्षा देने के बाद भी एक धोबी के कहने पर भगवान श्री राम ने उन्हे त्याग दिया। तो सवाल ये था कि राम भी तो सीता से उतने ही समय के लिए दूर रहे जितना कि सीता उनसे, तो राम की पवित्रता भी तो संदेह के दायरे में होनी चाहिए थी.... फिर राम की अग्निपरीक्षा क्यों ज़रूरी नहीं हो जाती? अरे भाई, सीता को किसी स्कीम में big bazaar से तो लाए नहीं थे। जिस पुरुषार्थ के दम पर लाए थे वो उसके बाद प्रमाणित क्यों नहीं हो सका? एक व्यक्ति की बतकही पर उनके अंदर का राजा जयजयकार कराने को आतुर हो उठा। और राजाजी ने राजधर्म के आगे पतिधर्म बिसरा दिया। क्यों भाई... इससे पहले भी राजपाठ उस प्रजा की अनर्गल बातों के आधार पर चलाया था क्या?

ज़रा सोचिए, आज के समाज में एक सुखी जीवन जी रहे पति-पत्नी में से पति अगर राम हो उठे तो कितनी सीताएं त्याग दी जाएंगी?

ऐसे में राम से भला तो रावण रहा... जैन्टलमैन था वो तो। उसने अपहरण के अलावा सीता के साथ कभी कोई अभद्रता तो नहीं की। और इस अभद्रता का परिणाम भी उसने मृत्यु पाकर भुगता, लेकिन राम को क्या सज़ा मिली अपनी आराध्या पर अविश्वास करने की? भरे समाज में उसे अपमानित करने की? पत्नी से दूर महल में रहकर जमीन के बिछौने पर सोने और कंदमूल फल खाने को क्या राम की सज़ा माना जा सकता है? दूसरे के लिए बिना अपराध भी आप ही सज़ा तय करेंगे और अपने लिए भी आप ही तय करेंगे। ये कैसा न्याय है भईया...? अच्छा.... राजा हैं न आप। और वैसे भी राजा के सामने तो सब प्रजा ही हैं। सीता राम की पत्नि और प्रजा दोनों थीं। तो अगर राम, राजा होने के नाते पत्नि के पक्ष में ना सोच कर प्रजा के पक्ष में सोच रहे थे तो भी सीता के साथ अन्याय कैसे कर बैठे?

‘लज्जा’ फ़िल्म में माधुरी दीक्षित से एक बड़ा सवाल उठावाया गया था। वो ये कि, ‘राम ने तो रावण से पूरी सेना को साथ लेकर लड़ाई लड़ी थी, लेकिन रावण से असली युद्ध तो सीता ने लड़ा था और वो भी अकेले... सीता अगर रावण के सामने समर्पण कर देतीं तो....? तो राम और उनकी सेना किससे और किसलिए लड़ पाते?’ सारा का सारा तामझाम धरा रह जाता। कहने वाले कह सकते हैं कि क्या कमी थी रावण में... सोने की लकां का मालिक था। रावण अगर अच्छा व्यक्ति नहीं था तो क्या ये बात राम के बारे में पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है? जहां सीता पूरी पवित्रता के साथ रावण के समक्ष डटी रहीं वहीं सीता की निष्ठा भुलाकर राम ने उन पर संशय करके उन्हे कलंकित कर दिया। राम इसके लिए जन्मों-जन्मों तक सीता के अपराधी रहेंगे। माफ़ी चाहूंगा, लेकिन मर्यादा पुरषोत्तम राम का किरदार अपुन की समझ में तो नहीं आया रे भाई। या फिर अपने ही भेजे में कोई कैमिकल लोचा होगा। क्या मालूम। सबके अपने-अपने राम सबकी अपनी-अपनी राय।

खैर....! ‘रावण’ फ़िल्म में क्या दिखाया जाएगा? अब तो मेरा ऊहापोह, कौतुहल और उत्सुकता और बढ़ गई है।