कविता कह लीजिए या कुछ और..., जो भी है, प्रस्तुत है-
जब पांव धरा पर रहता था।।
जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब कर्ज़ कई, अब मर्ज़ कई,
संग उम्र के बढ़ते फ़र्ज़ कई,
जीवन धुन, तानें बिगड़ गईं,
एक मुखड़े की हैं तर्ज़ कई,
जब अपनी धुन में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!