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Saturday, October 8, 2011

अन्ना का उग्र सत्याग्रह

पहले वोटिंग में ‘राइट टू रिजेक्ट’ की मांग करना और अब कांग्रेस को वोट ना देने की अपील करना अन्ना के मिशन का सकारात्मक पहलू कैसे हो सकता है जबकि ‘वोट ना देने’ का अन्ना ख़ुद कोई विकल्प नहीं सुझा पाते। कांग्रेस को वोट ना देने की बात कहकर अन्ना क्या होने देना चाहते हैं? यदि लोगों ने अन्ना की बात मान भी ली तो इस बात की गारंटी तो शायद अन्ना भी नहीं दे पाएंगे कि फिर जिस पार्टी या गठबंधन की सरकार बनेगी वो उससे ख़ुश होंगे ही। अगर ख़ुश नहीं होंगे तो क्या फिर उस पार्टी को भी वोट ना देने की अपील करेंगे? और सबसे बड़ा सवाल- ऐसा कब तक करेंगे? अन्ना को लगता है कि सरकार उनके साथ धोखा कर रही है। लेकिन अन्ना को मुश्किलों का सामना शायद इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि वो एक समानांतर न्यायिक व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जनलोकपाल लाने पर इतना ज़ोर दे रहे हैं जबकि ये काम वो भ्रष्टाचार के लिए ज़िम्मेदार मौजूदा सुस्त कानूनी और न्यायिक प्रक्रिया को दुरुस्त करने का कोई ठोस मसौदा तैयार करके भी कर सकते थे। जबकि सच्चाई ये है कि अन्ना अपने जनलोकपाल मसौदे को लेकर इतने महत्वाकांशी और केंद्रित प्रतीत होते हैं कि वो ना तो जयप्रकाश नारायण के जनलोकपाल को देखना चाहते हैं और ना अरुणा राय के जनलोकपाल को। वो तो बस अपने जनलोकपाल को इस देश की ज़िद बनाना चाहते हैं। ऐसे में अन्ना का पक्ष लेने वालों को ‘अन्ना कुछ भी असंवैधानिक नहीं कर रहे’ और ‘अन्ना कुछ भी असंवैधानिक नहीं कह रहे’ के अंतर को भी स्पष्ट करना होगा। अभी तो अन्ना के आंदोलन के तौर-तरीके को विशुद्ध रूप से गांधीवादी भी सही नहीं बता रहे। गांधीवादी अन्ना के आंदोलन को महात्मा गांधी मार्ग से विमुख बताते आए हैं। सरकार पर अन्ना के ताजे और तीखे बयान अन्ना के गुस्से और झुंझुलाहट की ओर इशारा करते हैं जो महात्मा गांधी में कभी नहीं देखे गए। अन्ना की ये ‘गांधीगीरी’, उग्र सत्याग्रह की नई परंपरा कही जा सकती है। जिसका महात्मा गांधी से कहीं कोई लेना-देना नहीं है। सच है कि अन्ना के आंदोलन से एक नहीं बल्कि कई एनजीओ स्थापित हो गए। भीड़ को अन्ना के रूप में महात्मा गांधी नज़र आए और आज़ादी के आंदोलनों का फ़ाइल फुटेज चलाने वाले मीडिया को एक ‘लाइव इवेंट’ मिला। लेकिन सवाल ये कि इससे देश को भी कुछ मिलेगा क्या? या फिर अन्ना ‘नत्था’ और रालेगण सिद्धि ‘पीपली गांव’ बनकर रह जाएंगे। रही बात भीड़ कि तो शाम तक सभी को अपने घर लौटने की जल्दी रहती है। भीड़ अन्ना के साथ किन परिस्थितियों में और कब तक बनी रहती है, कौन जाने? क्योंकि अब तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को एकजुट करने का प्रयास करने वाले अन्ना की टीम में भी वैचारिक मतभेदों की दरार दिखने लगी है। अन्ना की जयजयकार करने के बीच इस बात को समझने की फुर्सत भी निकाली जानी चाहिए कि अन्ना के समर्थन में लोग केवल भौतिक रूप से ही संगठित हैं या वैचारिक रूप से भी संगठित हैं? भ्रष्टाचार के विरोध से बात शुरू करके आज अन्ना इस हठयोग पर आमादा हैं कि शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल बिल पारित ना किए जाने पर कांग्रेस को वोट ना दिया जाए। यूपीए गंठबंधन की सरकार में अन्ना के निशाने पर सिर्फ कांग्रेस ही क्यों है? यही नहीं अपने इस ऐलान से वो इस देश के मतदाता के स्वैछिक मतदान के संवैधानिक अधिकार पर अपना एकाधिकार तक सुरक्षित करते प्रतीत होते हैं। राहुल गांधी ने ग़लत नहीं कहा है कि ‘भ्रष्टाचार से सिर्फ व्यवस्था में रहकर ही निपटा जा सकता है। जो लोग भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं वो राजनीति में आए और प्रयास करें।’ लेकिन अन्ना का तर्क है कि वो राजनीति में कभी नहीं आएंगे क्योंकि राजनीति में बहुत गंदगी है। अन्ना ने गंदगी हटाने के वादे पर भीड़ तो खूब जुटा ली लेकिन ये नहीं बता सके कि गंदगी में उतरे बिना गंदगी साफ कैसे होगी? जबकि अन्ना ख़ुद मानते हैं कि जनलोकपाल आने के बाद भी भ्रष्टाचार पर लगाम केवल सत्तर फीसदी तक ही लग सकेगी। यानि भ्रष्टाचार के सौ डायनासोर में से भी जनलोकपाल से केवल सत्तर ही खत्म हो सकेंगे, तीस जिंदा ही रह जायेंगे। क्या ऐसे में अन्ना का एजेंडा मात्र हॉलीवुडिया फ़िल्म ‘जुरासिक पार्क’ की ही एक कड़ी जान नहीं पड़ता। (9-10-11 को दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)