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Saturday, June 9, 2012

राधे मां और निर्मल बाबा को मेरा दशवंद....


      राधे मां इन दिनों ईश्वरीय शक्ति का ताजा तथाकथित अवतार हैं। हाथों में त्रिशूल और गुलाब का फूल लिए राधे मां उडनखटोले से भक्तों के बीच आती हैं, झमाझम मेकअप, डिज़ायनर लिबास और गहनों से लदी हुईं मां भक्तों के साथ नाचती हैं। जिस भक्तों की गोद में चढ़ जाएं या जिसे अपना जूठा खिला दें वो तर जाता है। दुआओं के कारोबार में करोड़ों का टर्नओवर है। भक्त मां कि छत्रछाया में हैं और मां खुद मुंबई के एक धनी व्यवसाई गुप्ता जी की छत्रछाया में। एक न्यूज़ चैनल बता रहा था कि सालों पहले मां अपने ढोंग पर फगवाड़ा के गुस्साए लोगों से माफी मांगकर भाग खड़ी हुई थी। अब जसविंदर उर्फ गुड़िया उर्फ राधे मां फिर अवतरित हुई हैं। अभी तो पता नहीं राधे मां के बारे में और क्या-क्या तथ्य प्रकाश में आएंगे।

ऐसे ही पिछले दिनों टच थैरेपी से कई देशों के राष्ट्रपतियों और प्रदानमंत्रियों का कल्याण का दावा करने वाले दक्षिण भारत के कथित बाबा के ए पॉल को अपने भाई की हत्या की सुपारी देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने पुख्ता सबूतों के साथ उन्हे पकड़ा है। इधर मीडिया रिपोर्टस् आने के बाद निर्मल बाबा पर भी कानूनी शिकंजा कसता जा रहा है। इससे पहले भी कई बाबा और स्वामी कानून के लपेटे में आ चुके हैं। एक तरह से देखा जाए तो बाबा लोग इस देश की धार्मिक समस्या बनते जा रहे हैं। ऐसे बाबाओं की संख्या हज़ारों में है। राधे मां से पहले दो बाबाओं का डंका खूब पिटता रहा। निर्मल बाबा और दक्षिण भारत के पॉल दिनाकरण। निर्मल बाबा का बचाव करते हुए पिछले दिनों उमा भारती ने पॉल दिनाकरण का नाम लिया था।

लोगों की धर्मिक भावनाओं को अपने मन मुताबिक दिशा-निर्देशित करने के मामले में राधे मां, निर्मल बाबा या दक्षिण के पॉल दिनाकरण कोई अपवाद नहीं हैं। टीवी पर असंख्य देवी-देवता दर्शन देते हैं। इससे पहले भी लोग अपना बेड़ा पार लगाने के फेर में कई बाबा बदल चुके हैं। बाबा लोग भी धर्म से ज्यादा अपने कर्म और आध्यात्म से ज्यादा लोगों को सम्मोहित करने वाले तामझाम पर ज्यादा रिसर्च करके मैदान में कूद रहे हैं। राधे मां और निर्मल बाबा तो बस बाबागीरी के इस कॉरपोरेट हब की ताज़ा कड़ी हैं। आशीर्वाद और किरपा के इस बिज़नेस में ईश्वरीय शक्ति के ये ताजा तथाकथित अवतार महज़ एक प्रोडक्ट हैं और भक्त मूर्ख उपभोक्ता। कॉरपोरेटी किरपा की ये भगवान कंपनियां बिलकुल किसी एमएनसी की तरह अपना कामकाज करती हैं।  मामला दरअसल लोगों में व्याप्त आशंकाओं के फलस्परूप उत्पन्न हुई जिज्ञासा को भरपूर भुनाने का है। लोगों में निहित संभावनाओं और संवेदनाओं का दोहन इसकी प्रक्रिया है। और निर्विवाद रूप से टीवी चैनलों की विज्ञापन नीति का अनुचित लाभ इन बाबाओं और देवियों को भरपूर मिल रहा है। किसी भी टीवी चैनल पर अपना आधे घंटे का विज्ञापन देकर ये चैनल की विश्वसनियता और प्रमाणिकता को अपने नाम के साथ जोड़कर मोटी मलाई मार रहे है। इन बाबाओं-देवियों को टीवी पर अपने विज्ञापनों से तो लाभ होता ही है बल्कि बाद में अपने ढोंग की पोल-खोल और पर्दाफाश जैसे कार्यक्रमों से भी मुफ्त की पब्लिसिटी मिल जाती है। टीवी चैनलों को ये समझना चाहिए।

राधे मां और निर्मल बाबा ही क्या किसी का भी भव्य और जगमगता दरबार जब भी सजा हुआ देखता हूं तो बचपन में देखे गए मैजिक शो याद आ जाते हैं। जिसमें जादूगर अपना जादू दिखाने से पहले दावा करता था कि अब आप वही सुनेंगे जो मैं आपको सुनाउंगा और अब आप बस वही देखेंगे जो मैं आपको दिखाउंगा, और उसके बाद वो किसी बच्चे के मुंह से अंडा निकाल देता था, किसी लड़की का सिर धड़ से अलग कर देता था, कभी ऑडिटोरियम की छत गायब कर देता था और कभी ख़ुद को बक्से में बंद करके ना जाने कैसे लोगों के बीच से निकल आता था। जादूगर के पिटारे में और भी ना जाने कितने हैरतअंगेज़ तमाशे होते थे। इन बाबा और बाबियों को तथाकथित समागम करते देखता हूं तो लगता है जैसे उन्ही में से कोई जादूगर बाबा या देवी बन गया है। उल्लेखनीय है कि किराए के जाने-माने सैलेब्रटीज़ अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को भूलकर इनके शो हिट कराने के व्यवसाय में भक्तों की भूमिका निभा रहे हैं। इसके अलावा इन माओं, बाबाओं और स्वामियों का करोबार राजनैतिक संरक्षण में भी फलफूल रहा है। इस सघन कनेक्शन की भी पड़ताल होनी चाहिए।

      राधे मां या निर्मल बाबा और उन जैसे तमाम बाबाओं के पास सिर्फ थर्ड आई वगैराह ही नहीं है बल्कि करोड़ की संपत्ति, कई व्यवसायिक प्रतिष्ठान, होटल और भी ना जाने क्या-क्या हैं। अपना और अपनी तथाकथित शक्तियों का मंदिर बनवाने के लोलुप ये जादूगर जीते-जी ही अपने भक्तों में भगवान बन बैठते हैं। इन बाबाओं के भक्तों को फिर किसी सामाजिक मंच अथवा किसी न्यूज़ चैनल्स पर बड़े-बड़े धर्मशास्त्रियों, तर्कशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों और मनोचिकित्सकों से साथ अपने अधपके ज्ञान के हवाले से कुतर्क करते देखा जा सकता है। इन भक्तों को देख और सुन कर ऐसा लगता है कि परेशानियों, मुसीबतों और संघर्षों के मारे लोगों की हिम्मत तो पहले ही जवाब दे चुकी थी, अब उनके स्वविवेक और आत्ममंथन पर भी एक बाबा का आसन पड़ चुका है।

      यहां आतंक और आध्यात्म में बड़ा ही झीना सा अंतर नज़र आ रहा है मुझे। सही भी है, अपनी सामर्थ्य और समझ को हाशिए पर रखकर बाबा के बताए ऊल-जलूल उपाए करने वाले भक्त अगर टीवी कैमरों के सामने ही बाबा का आधारहीन पक्ष रखने की ज़िद में मार-काट की सीमा तक उग्र हो रहे हैं तो बाबा के एक इशारे पर वो हिंसा पर उतारू नहीं हो सकते इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।

      ऐसे देवियो और बाबाओं के व्यापार को समझना होगा। ये सेलेब्रिटी होकर जीने का जमाना है। ग्लैमर सिर्फ बाबा बनने में ही नहीं है अपितु भक्त बनने में भी है। एक अरसा पहले पत्थर की मूर्तियों को दूध पिला कर भी हम जीवन के झंझावातों की वैतरणी पार करने का असफल प्रयास कर चुके हैं। ये बाबाओं का दौर चल रहा है। किसी बाबा या देवी के भव्य पंडालों में जाकर मादक इत्र और मदहोश कर देने वाली खुशबू से शराबोर अगरबत्ती और धूपबत्ती का स्मोक हमें लुभाने लगा है। हमें लगने लगा है की घर की चिकचिक और संकीर्ण माहौल से निजात पाकर हम दिव्यलोक में आ गए है। ऐसे सत्संग और समागमों में आना उमंग और वहां से लौटकर आना आनंद की परिभाषा बन गया है। ये धार्मिक उन्माद है, जो हमसे अनदेखे ईश्वर और शक्तियों का स्केच तैयार करवा रहा है। अपनी आंखे मूंद चुके मद्धम संगीत लहरियों पर झूमते लोगों के हाथों में राधे मां और निर्मल बाबा जैसे लोग कूची और रंग थमा रहे हैं। नतीजा ये कि ईश्वर को भी लोग अपने मन-मस्तिष्क की आंखों से नहीं बल्कि बाबाओं की थर्ड आई से देख रहे हैं। आत्मा की चिट्ठी परमात्मा तक पहुंचाने के लिए बाबा लोग ख़ुद को डाकिया प्रोजेक्ट कर रहे हैं, भगवान और भक्त के बीच कंनेक्शन की गांरटी पर कमीशन का खेल खेलने वाले ये देवी और बाबा लोग दलालों से ज़्यादा कुछ भी नहीं हैं। वरना अपने अंदर ईश्वरीय शक्तियों का दावा करने वाले इन लेगों ने कभी अपने भक्तों को ये क्यों नहीं बताया की ईश्वर तो उनके अर्थात भक्तों अंदर भी है।

      यहां ग़लती पूरी तरह से राधे मां या निर्मल बाबा और उन जैसे तमाम बाबाओं की भी नहीं है। दरअसल ऐसे देवी और बाबा लोग तो भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का दुर्लभ घालमेल हैं। निर्मल बाबा तो मात्र एक प्रोडेक्ट हैं। महाठग नटवरलाल ने सालों पहले एक अख़बार को दिए अपने आख़िरी इंटरव्यू में कहा था कि इस देश में मूर्ख बनने वालों की नहीं, मूर्ख बनाने वालों की कमी है। राधे मां और निर्मल बाबा जैसे लोग तो नटवरलाल के उस रिक्तिस्थान को भर मात्र रहे हैं। दरअसल लोगों के मतिभ्रम, मनोविकार और असमंजस की व्याकुलता को भुनाना भी एक कला है। राधे मां, निर्मल बाबा और उन जैसे तमाम बाबा दरअसल धर्म की नहीं, कॉरपोरेट जगत की पैदाइश हैं। वरना सोचने वाली बात है कि अपने आप को निमित्त मात्र बताने वाले इन लोगों के पास ये महल जैसे पंडाल, लक्ज़री कारें, कई-कई बीघों में आश्रम, झाड़-फ़ानूस, भवन, गुफाएं, सिंहासन और सेविकाएं, कहां से आ जाती हैं। इतने भोग-विलास और सुविधा संपन्नता में तो कभी ख़ुद भगवान भी नहीं रहे होंगे। ऐसे कई उदाहरण हैं। अभी तो देखते जाइए, ना जाने कितने बाबा और मांएं लॉच होने वाले हैं।

      ईश्वर को आकार और निराकार दोनों रूपों में मानने वालों की एक अच्छी खासी तादाद इन बाबाओं में भगवान के साक्षात दर्शन कर रही है। और इन नयनाभिराम दर्शनों ने आंखों को इतनी चकाचौंध से भर दिया है कि लोग अपने दिमाग में हो रहे कैमिकल लोचे को भक्ति का नाम दे रहे हैं। समझने वाली बात ये है कि हमारे धर्म ग्रंथों में शायद ही ऐसे किसी भगवान का उल्लेख हो जिसने कष्ट ना झेले हों, ईसा मसीह से लेकर भगवान कृष्ण तक हर धर्म में भगवान को मिले कष्टों का वर्णन मिलता है। जीवन-मृत्यु, रात-दिन की ही तरह सुख-दुख भी आने-जाने हैं। भगवान भी अपने ऊपर आए कष्टों को टाल नहीं सके थे। फिर भगवान के ये ठेकेदार ना जाने कहां से कष्टों से मुक्ति की संजीवनी बांटने का दावा करते हैं। सच तो ये है कि, ना भगवान के कष्ट-कंटक दूर हुए और ना भगवान के भक्तों के होंगे, हां, आत्मा-परमात्मा के खेल में अपना दांव चलकर इन देवियों, बाबाओं और स्वामियों के कष्ट ज़रूर छू-मंतर हो चुके हैं। वो आजकल कतई भोग-विलासी और टनाटन हैं।

      इन नकली देविओं और बाबाओं से बहुत नुकसान हो रहा है। लोगों में निर्णय लेने की क्षमता ख़त्म हो चुकी है क्योंकि अब भक्तों के छोटे-छोटे निर्णय भी ये बाबा लोग लेते हैं। ऐसे में लोगों में असमंजस और भ्रम की स्थिति पनप रही है। कभी लोग बाबा रामदेव के कहने से कोल्ड ड्रिंक से टॉयलेट साफ़ कर रहे हैं तो कभी निर्मल बाबा के कहने से वही कोल्ड ड्रिंक इस उम्मीद के साथ फ़्रिज में सहेज रहे हैं कि उससे किरपा आएगी। हो ये भी रहा है कि लोग अपनी मेहनत से मिली सफलता का श्रेय भी इन बाबाओं को देकर इनकी जय-जयकार कर रहे हैं और दूसरा सबसे बड़ा नुकसान ये कि ऐसे बहरूपियों की भीड़ में असली धर्मरक्षक और धर्म प्रचारक अपनी पहचान के संकट से जूझ रहे हैं। सनातन धर्म की पुर्नस्थापना करने वाले शंकराचार्य की वर्तमान पीढ़ी को भी लोग संशय की दृष्टि से देख रहे हैं तो इसका दोष और पाप इन्ही बहरूपियों के सिर मढ़ा जाना चाहिए। इन बाबाओं का इलाज कैसे होगा? क्या अपना बेड़ा पार लगाने के लिए इनकी अंधभक्ति करने वाले लोग कभी जागरुक हो पाएंगे? या टीवी चैनलों को पहल करते हुए विज्ञापन के लिए निर्धारित राशि लेकर इन्हे टीवी वाले बाबा का तमगा देने का अवसर देने की नीति में बदलाव करने की ज़रूरत है? जो भी हो, अब वो प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। वरना राधे मां और निर्मल बाबा जैसों को मान्यता देना ठीक वैसा ही है जैसे बीमारियों के इलाज के लिए घरेलू नुस्खे बताने वाली दादी को डॉक्टरी की डिग्री थमा दी जाए।
(आज 10-06-2012 को दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)

Thursday, June 7, 2012

पेट्रोल पंप व्यू होटल, पेट्रोल पंप फेसिंग फ्लैट


पेट्रोल पंप न हुए, जैसे ताजमहल हो गए। पेट्रोल भरवाने जाना तीरथ करने जैसी अनुभूति देता है। पेट्रोल में आई तेजी को देखते हुए वह दिन दूर नहीं, जब पेट्रोल गुटखा से लेकर पेट्रोल चाय, पेट्रोल आफ्टरशेव तक शान के साथ बिकेंगे। नाम के साथ पेट्रोल जुड़ते ही किरपा बरसने लगेगी। जैसे दारूवाला, माचिसवाला, स्क्रूवाला आदि नाम जाने जाते हैं, वैसे ही अब पेट्रोलवाला भी सुनाई देगा।

पेट्रोलवाला उपनाम रखने के लिए जरूरी नहीं कि आप पेट्रोल पंप के मालिक होंअगर आप पेट्रोल भरवाने की कुव्वत रखते हैं, तब भी आप बड़ी शान के साथ अपने नाम के साथ पेट्रोलवाला चस्पां कर सकते हैं। सोच रहा हूं कि अपना उपनाम भी मुस्कान की बजाय पेट्रोलवाला कर लूं। मुस्कान लगाने जैसा वैसे भी महंगाई ने कुछ छोड़ा नहीं, अनुराग पेट्रोलवाला सुनने में भी रौबदार लग रहा है। शायद मुस्कान पेट्रोलवाला ज्यादा सही रहेगा। अब जिसके पास पेट्रोल है, उसके पास मुस्कान तो होगी ही।

पेट्रोल पंप पर कैश लुटते हुए तो बहुत सुना, अब वह दिन भी जल्दी ही देखना पड़ेगा, जब पेट्रोल लूट की ब्रेकिंग न्यूज चलेगी। पेट्रोल दहेज में मांगा और दिया जाने लगेगा और दहेज उत्पीड़न की जगह पेट्रोल उत्पीड़न के मामले सामने आएंगे। पेट्रोल की महक वाले इत्र और परफ्यूम छिड़ककर लोग इतराते फिरेंगे। डरता हूं कि पेट्रोल कहीं गंगाजल का विकल्प न बन बैठे। गंगाजल तो प्रदूषित हो रहा है, ऐसे में पेट्रोल में नहाकर कहीं अब मोटरगाड़ी के इंजन और रिंग-पिस्टन के साथ ही पाप भी न धुलने लगें।

प्रदूषण और मिलावट के इस दौर में दो बूंद जिंदगी की पिलाकर भले ही रोग से मुक्ति की गारंटी न मिले, लेकिन प्राण त्याग रहे शरीर की जीभ पर दो बूंद पेट्रोल की डालते ही उसकी आत्मा का परमात्मा से मिलन के साथ ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होना सुनिश्चित हुआ करेगा। पेट्रोल को राष्ट्रीय द्रव्य घोषित कर देना चाहिए।

मेरे मित्र परेशान हैं, बिल्डर ने फ्लैट के दाम दोगुने कर दिए। कहता है, फ्लैट अब पेट्रोल पंप फेसिंग हो गए हैं। सुना है कि एक किलोमीटर पेट्रोल पंप के दायरे वाले समंदर किनारे के होटल मालिक अपने होटलों का नाम सी व्यू से बदल कर पेट्रोल पंप व्यू करने का मन बना रहें हैं।

(आज 08-06-2012 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)

Monday, June 4, 2012

जेब का छेद देखें या ओज़ोन का...


      अगर आपको याद नहीं कि आज पर्यावरण दिवस है तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। आप अपराधबोध से मुक्त रहिए। दरअसल दुनिया में आकर जीने की वचनबद्धता और जीवन का जहर पीने की व्यस्त दिनचर्या में जहां अपने बच्चों के नाम, बीवी का जन्मदिन, शादी की सालगिरह और अपने ही हस्ताक्षर याद नहीं रहते तो पर्यावरण दिवस की क्या बिसात। पर्यावरण दिवस कोई सास-बहू का टीवी सीरियल तो है नहीं जो उसका रिपीट टेलीकास्ट याद रखा जाए और न ही वो किसी समस्या को छू-मंतर करने के लिए किसी बाबा का बताया गया कोई ऊलजलूल उपाय है जो उसे आत्मसात किया जाए। और वैसे भी अब हमारे लिए मूर्ख दिवस के अलावा कोई दिवस प्रासंगिक नहीं रहा।

      इसके बावजूद भी पर्यावरण दिवस के लिए गौरव की बात है कि उसपर निबंध लिखे जाते हैं, वृतचित्र बनते हैं, बड़े-बड़े मंत्री उस पर भाषण देते हैं, तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्यट्रीय संस्थाएं इस दिवस पर बड़े-बड़े सेमीनार करके व्यथित हो उठते हैं। कोई इससे आगे भले ही कुछ ना करे लेकिन पर्यावरण को बचाने के लिए ब्लॉकबस्टर माहौल तो बन ही जाता है न। इससे ज्यादा सीरियस होने में अपना ही घाटा है। अरे साहब, हम इतने मूर्ख भी नहीं हैं। आज पर्यावरण को बचाने के लिए पेड़ लगाएंगे तो कल रहेंगे कहां? पता नहीं हमारा लगाया पेड़ कल किस बहुमंज़िला इमारत या फ्लाईओवर के रास्ते का रोड़ा बन जाए। न जाने कौन सा पेड़ भविष्य में विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दे। पेड़ तो अब जंगलों में भी नहीं रहे तो इन्हे अपने आसपास क्या लगाना। वो तो मनी का लालच ना होता तो हम तो मनी प्लांट भी न लगाते।

      देखिए साहब, बुरा मत मानिए लेकिन हमारे लिए ओजोन की परत में बड़े हो रहे छेद से ज्यादा चिंताजनक हमारी जेब में बड़े होते जा रहे छेद हैं। माना कि नदियां सूख रही हैं और हमें इसके लिए कुछ करना चाहिए लेकिन पहले हम अपने घर के सूखे नल से तो निपट लें। घर का पर्यावरण बचाएं तो बाहर जाएं न। यहां अपनी चिंता में बीपी हाई हुआ पड़ा है आप कहते हैं पर्यावरण की चिंता करो। कल ही तो बेटे ने पर्यावरण बचाओ विषय पर निंबध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता है, और आप कहते हैं हम पर्यावरण को लेकर गंभीर नहीं हैं। अब पर्यावरण दिवस का कॉन्सेप्ट किसी वैलेंटाइन जैसे संत ने नहीं बनाया है तो इसमें हमारी क्या गलती। सॉरी पर्यावरण दिवस।   
(आज 05-05-2012 को अमर उजाला में प्रकाशित)