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Tuesday, June 8, 2010

थैंक यू दयाराम...!

पत्थरदिल शहर में किसी की आत्मियता पाना, मनचाहा दूसरा जीवन पाने से कम नहीं है। दयाराम जैसे लोग कहां मिलते हैं आसानी से। संवेदनाएं, भावनाएं, आत्मियता, स्नेह, आत्मसम्मान और उम्मीद, हम टीवी वाले सिर्फ़ ख़बरों में ही ढ़ूंढ पाते हैं। आपस में इन मूल्यों के साथ प्रयोग करने का हमारे पास समय ही नहीं होता। कुछ संगदिल किस्म के हो चले हैं हम लोग। ये हमारे पेशे की मजबूरी भी है।

मंगलवार 8 मई की सुबह मौसम बड़ा सुहाना था। तय हुआ की 11 बजे का बुलेटिन मौसम पर ही करेंगे और स्टूडियो की बजाए बाहर से करेंगे। ऐसे में हम ऑफ़िस के पार्किंग एरिया का इस्तेमाल करते हैं। 11:23 पर बुलेटिन ख़त्म हुआ और मैं स्टूडियों में आने लगा। तभी पीछे तैनात सिक्योरटी गार्ड ने मेरा रास्ता रोक लिया।

-‘सर... ये....!’, कहते हुए एक काग़ज का टुकड़ा उसने मेरी तरफ़ बढ़ा दिया।
-‘क्या है ये...?’, मैंने पूछा।
-‘भेंट है सर आपके लिए..., वो अभी आप समाचार पढ़ रहे थे ना तभी के तभी लिखा है... कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ कीजिएगा।’

11:30 की हैडलाइन्स पढ़ने की जल्दी में मैं कागज़ लेकर पीसीआर आ गया। वो कागज़ के टुकड़े पर लिखा एक पद्द था। उस कागज़ पर लिखा हर शब्द हूबहू यहां लिख रहा हूं-

सोहत ओढ़े श्याम पट, गौर अनोखे गात।।
जिन पायो ‘मुस्कान’ को, धन्य वाहि पितु मात
काले केश बढ़ावहिं शोभा। टाई नील सवहिं मन लोभा।।
रहिहिं अधर सदा मुस्काना। अंग-2 बहु शोभित नाना।।
देश विदेश बखानै खबरा। कातिल नाम सुनत जा घबरा।।
भृकृटि-नैन न जाए बखाना। संक्षेपहिं में समझो कान्हा।।
पुष्ट गात बदन अति सुन्दर। नैन नक्श बहु छटा मनोहर।।
“राऊर नहिं कछु कामना, चाहे जब निकले प्रान।
बस बुझती आखों को दिखें, अनूराग “मुस्कान”।।
From- Gd- Daya Ram



पढ़कर मैं भावुक हो उठा। गार्ड दयाराम ऑफ़िस में कई महीनों से तैनात है, लेकिन मुझे याद नहीं इससे पहले मैंने उसका चेहरा कभी देखा हो। सिक्योरिटी से हमारा वास्ता कम ही पड़ता है। ऑफ़िस में कई गार्ड तैनात हैं, दयाराम भी उनमें से एक है। कौन लगता है दयाराम मेरा? कोई नहीं। लेकिन आज एक आत्मियता का रिश्ता कायम कर लिया उसने मुझसे। ऑटोग्राफ़ मैंने ख़ूब दिए हैं और लोगों ने मेरे साथ फ़ोटो भी ख़ूब खिंचाए हैं। लेकिन दयाराम जैसा प्रशंसक मुझे पहली बार मिला।


सवाल ये नहीं है कि मैं दयाराम की प्रशंसा से गदगद हो गया, बल्कि सच तो ये है कि दयाराम किसी के लिए भी उदाहरण हो सकता है, सबक हो सकता है। प्रशंसा करने की दयाराम की ईमानदारी ने मुझे प्रभावित किया, वरना आज के दौर एक-दूसरे से ईर्ष्या करने, द्वेष रखने और आलोचना करने की व्यस्तता में लोग किसी की प्रशंसा करना ही भूल चुके हैं। प्रशंसा में निंदारस घोलकर उसे कसैला कर चुके हैं। जबकि किसी की भी ज़रा सी प्रशंसा कितना हौंसला, कितना संबल और उत्साह देती है, इसके अहसास से मैं आज भरा हुआ हूं।

वैसे मैंने महसूस किया है कि ज़्यादा पढ़-लिख कर इंसान इतने बड़े क़द का हो जाता है कि फिर उसे बस प्रशंसा पाने की लत लग जाती है, फिर चाहे कोई उसकी झूठी प्रशंसा ही क्यों ना करे, किसी की प्रशंसा करना उसे अपनी शान के खिलाफ़ लगने लगता है। ऐसे में प्रशंसा करने का साहस अब केवल दयाराम जैसे लोग ही कर पाते हैं। जो भले ही कम पढ़े-लिखे हैं, लेकिन अपनी जड़ों से तो जुड़े हैं।

एक दयाराम को अपने भीतर जीवित रख पाने में अभी तक तो मैं सफल रहा हूं। ......और आप....?

10 comments:

honesty project democracy said...

वैसे मैंने महसूस किया है कि ज़्यादा पढ़-लिख कर इंसान इतने बड़े क़द का हो जाता है कि फिर उसे बस प्रशंसा पाने की लत लग जाती है, फिर चाहे कोई उसकी झूठी प्रशंसा ही क्यों ना करे, किसी की प्रशंसा करना उसे अपनी शान के खिलाफ़ लगने लगता है। ऐसे में प्रशंसा करने का साहस अब केवल दयाराम जैसे लोग ही कर पाते हैं। जो भले ही कम पढ़े-लिखे हैं, लेकिन अपनी जड़ों से तो जुड़े हैं।


अनुराग जी आपने एकदम सही महसूस किया है दया राम जैसे लोगों में ही अब इंसानियत बाकि है जो सच्ची भी कही जा सकती है ,बहुत-बहुत धन्यवाद आपका इस पोस्ट के लिए | आज आपके एक अलग सोच को देखने और पढने का मौका मिला इस पोस्ट के जरिये ....

संजय कुमार चौरसिया said...

nsaniyat chhote logon main hi jyada dekhne ko milti hai,

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

anoop joshi said...

अछा है सर, असल में दयाराम हो या में हर कोई तारीफ करता है,आप भी करते होंगे सर लेकिन सिर्फ अपने बड़े और कदावर लोगो की, मुझे पता है शायद आप ये कमेन्ट छपने ना दे, पर आपने, मेने या दयाराम ने, अपने से कम जिसका " चेहरा कभी देखा हो।" उनकी तारीफ की है? जो रहते हमारे पास है, लेकिन सफल नहीं.

सॉरी सर में सिर्फ आपसे नहीं कह रहा हूँ, ये चीज में खुद से और सब से पूछ रहां हूँ.

Anonymous said...

m tarah meri mata ji bhi aapki bahut badi parsanshak hai anurag bhai ...

Dev K Jha said...

बहुत अच्छे, ऐसा प्रशंसक वाह वाह
वैसे रचना बहुत बेहतरीन लिखी है.... एक एक शब्द कमाल का है. भई वाह.

देश विदेश बखानै खबरा। कातिल नाम सुनत जा घबरा।।
भृकृटि-नैन न जाए बखाना। संक्षेपहिं में समझो कान्हा।।

मेरा संसार said...

दयाराम के फोटो से ही उसकी इंसानीयत साफ झलकती नज़र आती है। लेकिन भीड़-भाड़ भरी इस माहनगरी में इंसान तो बहुत है पर ज्यादतरों ने इंसानीयत को कहीं दफना दिया है।

अजित गुप्ता का कोना said...

असल में प्रशंसक तो सभी के होते हैं लेकिन हम ही उन्‍हें पहचान नहीं पाते हैं या फिर देख नहीं पाते हैं। हम तो उस के पीछे भाग रहे होते हैं जो हमे अच्‍छा लगता है ऐसे में बेचारे हमारे प्रशंसक बहुत छोटे हो जाते हैं। कितने दिन तक याद रहेगा दयाराम? बस इस पोस्‍ट तक। हमारी दौड़ और चाहत तो कहीं और है।

Unknown said...

anurag bhaiya aajkl ki matlbi duniya me agr koi sachhi prasansa bhi krta hai to log usey chaaplusi smjh lete hai aur hanste huey bhool jaate hai......... aap ne dayaram ki pavitra bhawnaa ko smjha wo aapke ke ek sanvedanseel aur achhe insaan hone ka pramaan hai

अनुराग मुस्कान said...

..आप सब की टिप्पणियों के लिए धन्यवाद! दयाराम को इस पोस्ट और आपकी टिप्पणियों का printout दिया है, वो भी बहुत ख़ुश है...।

Parul kanani said...

anurag ji..daya ram ko ghar ghar pahunchaya,iski aapko badhai aur baaki daya ram ki jai ho :) :)
saanch ko aanch kya :)