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Thursday, June 17, 2010

"यार, यहां पर बड़ी Politics हो रही है।"

मुझे नफ़रत हैं ऐसे लोगों से। लेकिन क्या करें, कुछ लोगों की दुकानदारी ही ऐसे चलती है। वो उस मछली के किरदार में होते हैं जो पूरे तालाब को सड़ा देती है। जिनका स्वार्थ ही दूसरों को छोटा साबित करके ख़ुद को बड़ा बनाना है। और आख़िर में अपनी आदत से मजबूर होकर वो अपने ज़मींदोज़ होने का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं।

आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी दफ़्तर में काम करते हों। ज़रा बताइए, कितने लोग हैं आपके दफ़्तर में जो अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं। अरे, लोग जिसकी नौकरी करते हैं, उसी को गाली देते फिरते हैं। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। लोग परस्पर किसी भी मुद्दे पर असहमत हों लेकिन अपने नौकरी और बॉस को लेकर कामोबेश सभी एक दूसरे से सहमत होते हैं। सभी का ‘संस्थागत मानसिक स्तर’ ख़तरे के निशान से ऊपर ही रहता है। सरकारी नौकर अपने अधिकारी से परेशान और प्राइवेट वाले अपने बॉस से। ये ना नौकरी के सगे होते हैं और ना अपने।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ऑफ़िस में लोगों को अपना बॉस हिटलर का बेवकूफ़ क्लोन क्यों नज़र आता है? कर्मचारियों का मानना होता है कि बॉस तो कर्मचारियों को मज़दूर समझता है। दफ़्तर के सर्वाधिक नाकारे लोग बॉस को गाली देते फिरते हैं। जिनके पास काम होता उन्हे बॉस और सहकर्मियों को गाली बकने का समय नहीं मिल पाता, लिहाज़ा वो घर आकर अपनी व्यस्तता का frustration अपने बीवी-बच्चों पर निकलाते हैं। बॉस कितना भी अच्छा क्यूं ना हो कभी प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाता।

पता नहीं क्यूं, हर तरह का कर्मचारी अपने को शोषित मानता है। जो कुछ काम नहीं करते वो कहते फिरते हैं कि मेरी प्रतिभा को यहां कुचला जा रहा है, मुझे मौक़ा ही नहीं दिया जाता, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा। कोई और धंधा पानी शुरू करूंगा। और जिनसे काम लिया जाता है, वो भी यही कहते घूमते हैं कि मेरा शोषण हो रहा है, वेरी वॉट लगा रखी हैं, गधों की तरह मुझसे काम लिया जाता है, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा।

ना जाने क्यूं कुछ लोग अपने जिस दफ़्तर को जहन्नुम बताते फिरते हैं, उसे ये जानते हुए भी नहीं छोड़ना चाहते कि उनके ना रहने से कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। वो जन्म भर की तरक्की की उम्मीद वहीं रहकर करते हैं, उनकी प्रतिभा भी पहचान ली जाए, सारे महत्वपूर्ण काम उन्ही से कराए जाएं, उनकी तनख्वाह भी उनके मन मुताबिक हर साल बढ़ा दी जाए, उनके अलावा किसी और को भाव ना दिया जाए और फिर वो ग्रैचुइटी के साथ पेंशन भी वहीं से पाएं। अरे भाई, आप इतने ही प्रतिभावान हैं तो कहीं और किस्मत क्यों नहीं आज़माते। अपनी नौकरी को गाली भी बकेंगे और रहेंगे भी वहीं। ये भी ख़ूब है।

कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि सबसे ज़्यादा काम तो वही करते हैं, फिर भी उनकी तनख़्वाह इतनी कम है और बाक़ी सारे तो बस गुलछर्रे उड़ाने की सैलरी पाते हैं। काम मैं करता हूं और पैसे दूसरों को मिलते हैं। .....छोड़ूंगा नहीं।

ऐसे ही कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर कर बैठते हैं। क़ाबलियत के दम पर किसी से आगे निकलने के बजाए, टांग अड़ाकर दूसरों को गिराने की कोशिश करते हैं। ना ही वो बड़े बन पाते हैं और हमेशा इस ग़लतफ़हमी में भी रहते हैं कि उन्होंने दूसरों को बड़ा नहीं बनने दिया।

राजनीति.......! यार, यहां पर बड़ी politics हो रही है। उनकी ज़ुबां पर बस यही डॉयलाग होता है। और politics सच में शुरू हो जाती है।

यहां राजू श्रीवास्तव का एक चुटकुला सार्थक रहेगा। राजू भाई कहते हैं कि जैसे पुरातन काल के अवशेष आज ज़मीन से निकलते हैं और फिर उनका अध्ययन होता है, वैसे ही आज की चीज़े कई सौ साल बाद निकलेंगी। कई सौ साल बाद जब ज़मीन से CD और DVD निकलेंगी तो अनुमान लगाया जाएगा कि ये निश्चित ही मनुष्य के खाना परोसने की थाली रही होगी। फिर कोई कहेगा कि अगर ये थाली रही होगी तो इसमें छेद कैसे हो गया है? .............फिर शोध का नतीजा निकलेगा कि मनुष्य जिस थाली में खाता था उसी में छेद करता था।

22 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

विचारणीय...

अजित गुप्ता का कोना said...

सही कह रहे हैं आप। हमें अपने काम को, अपने परिवार को, अपने देश को गाली देने की आदत पड़ चुकी है। मेरे एक साथी थे, वे एक दिन बोले कि मैं घर जा रहा हूँ, जितना पैसा सरकार देती है उतना मैंने काम कर लिया। मैंने उनसे कहा कि ऐसा करो कि कहीं दूसरी जगह नौकरी ढूंढो और मालूम करो कि तुम्‍हें कितना पैसा मिल सकता है? उनके पास जवाब नहीं था। हमारी फितरत ही यही है कि हम स्‍वयं को बहुत श्रेष्‍ठ मानते हैं और प्रत्‍येक परिस्थिति में केवल दुखी रहते हैं।

सूर्यकान्त गुप्ता said...

कई सौ साल बाद जब ज़मीन से CD और DVD निकलेंगी तो अनुमान लगाया जाएगा कि ये निश्चित ही मनुष्य के खाना परोसने की थाली रही होगी। फिर कोई कहेगा कि अगर ये थाली रही होगी तो इसमें छेद कैसे हो गया है? .............फिर शोध का नतीजा निकलेगा कि मनुष्य जिस थाली में खाता था उसी में छेद करता था। हा हा हा जबरदस्त पोस्ट। आपने लिखा सही है मगर एक प्रश्न क्या बास बनने के बाद, एक सामान्य मानवीय प्रव्रित्ति के चलते, मनुष्य मे परिवर्तन नही दिखाई पड़ता? और यही कारण है कि अधीनस्थ और बोस मे दूरी बढ जाती है।

वर्षा said...

अरे ऑफिस में काम के अलावा टाइमपास भी तो करना होता है। अब अगर ऐसी बातों पर भी पाबंदी लग जाए तो फ्रस्टेशन कहां निकलेगी।

आशीष मिश्रा said...

जब कंप्यूटर निकलेगा तो लोग क्या कहेंगे .....................
बहो अच्छा लिखा है आपने धन्यवाद

shikha varshney said...

सौफीसदी सही बात ..हमें अपने सिस्टम को गली देने की आदत पढ़ गई है .जहाँ रहेंगे उसे कभी नहीं सराहेंगे हमेशा बुरा कहेंगे पर वहां से हटेंगे भी नहीं ..क्या करें सिस्टम ही ऐसा है :)

आचार्य उदय said...

बहुत सुन्दर।

Udan Tashtari said...

फिर शोध का नतीजा निकलेगा कि मनुष्य जिस थाली में खाता था उसी में छेद करता था।


-बिल्कुल सटीक बात कही है!!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

ऐसे ही कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर कर बैठते हैं। क़ाबलियत के दम पर किसी से आगे निकलने के बजाए, टांग अड़ाकर दूसरों को गिराने की कोशिश करते हैं। ना ही वो बड़े बन पाते हैं और हमेशा इस ग़लतफ़हमी में भी रहते हैं कि उन्होंने दूसरों को बड़ा नहीं बनने दिया।

भाई यह बात सही कही ....

ajay saxena said...

सच्ची और खरी बात लिखी आपने....आपसे लहमत हूं

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

गजब ढ़ा रहे हो गुरू।
--------
भविष्य बताने वाली घोड़ी।
खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

बिना politics सब सून

rashmi ravija said...

यह तो सच है...जो भी जहाँ है, संतुष्ट नहीं है...और इसकी वजह हमेशा अपने बॉस और सीनियर्स को ही ठहराया जाता है, कहते हैं..Satisfaction is death पर अपनी असंतुष्टता को सकारात्मक तरीके से पूरा करने के बजाये वे दूसरों को दोष देते हैं इस तरह से negative vibes इकट्ठा कर वे अपनी सफलता और भी बाधित कर देते हैं.

पंकज मिश्रा said...

आपकी बात सही है, लेकिन किसी किसी के साथ ऐसा होता भी है। अपवाद हम जगह मौजूद हैं न साहब। क्यों । उन भी तो ध्यान दीजिए। हो सकता है आपके बॉस सही हों पर सारे बॉस आपके बॉस जैसे नहीं होते। मेरे बॉस भी अच्छे हैं पर किसी के बॉस तो तानाशाह होंगे न। बताइए ना।

RAUSHAN KUMAR said...

अनुराग भाई, लगता है आप अपने दफ्तर और अपने सीनियर से काफी खुश है और ग्रेचुएटी तो दूर की बात है लगता है आप यहीं से रिटायरमेंट लेने का मूड बना चुके है।........

abhishek said...

ajj ham admi ko desh samaj sabko bhala boor kahne ki adad pad gai adat kahtm karo yaer.

abhishek said...

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Anonymous said...

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abhishek said...

hamari aur sabki zindagi bemablabi ho gai hum sochte hai par sahee nahee sochte hai ab to hum apne galat soch ko sahee tharate hai aur apni vahvahee lootate hai en sabse nikaliye khud par achee adadt azmaiye aur chain se rahe.

Updesh Awasthee said...

आपकी इस पोस्ट को प्रदेश टुडे के संपादकीय पेज पर बेबाक ब्लॉग के लिए चुना गया है। संभवत: 6 जून को प्रात: संस्करण में प्रकाशित हो। आप प्रदेशटुडे.कॉम पर ईपेपर में जाकर डाक एडीशन में संपादकीय पेज देख सकते हैं।
इस संदर्भ में आप सीधे मुझसे भी संपर्क कर सकते हैं।

उपदेश अवस्थी
9425137664

Pravin Dubey said...

सही कह रहे हैं आप...

Anonymous said...

सही कह रहे हैं आप.....