Followers

Sunday, August 15, 2010

पीपली लाइव का इतना पोस्टमॉर्टम क्यों...?

क्या आमिर खान किसी फ़िल्म से अपना नाम जोड़कर उसे एक अमर कृति बना सकते हैं...? शायद नहीं...। मेरा मानना है कि कोई भी फ़िल्म सिर्फ़ दर्शकों की नज़र-ए-इनायत पर जीती या मरती है। अरे... बाक्स ऑफ़िस गवाह है, कि आमिर ख़ुद अपनी कई फ़िल्में उसमें हीरो होते हुए भी नहीं बचा पाए थे। लेकिन देख रहा हूं कि मीडिया के कुछ अंधविश्वासी लोग लगातार ये कह रहे हैं कि अगर आमिर का नाम इस फ़िल्म से नहीं जुड़ता तो इसका भविष्य अंधकार में होता। ऐसा नहीं है भाई, फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' को किस आमिर खान ने प्रमोट किया था? फ़िल्म बिना किसी सैलिब्रिटी स्टेट्स के हिट हुई या नहीं।

'पीपली लाइव' के बारे में ये कथित बुद्धिजीवी कहते फिर रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या और मीडिया का मज़ाक बनाया गया है। मैं भी मानता हूं कि इस फ़िल्म में एक गंभीर विषय को थोड़ा मज़ाहिया लहजे में पेश किया गया लगता है, लेकिन वो सब वास्तविकता के धरातल पर है। सब कुछ सिचुएशनल है, जिसे देखकर हंसी आ जाना इंसान की स्वाभाविक प्रवृति का एक पक्ष है। इस फ़िल्म में किसी किरदार, किसान या विषय की खिल्ली नहीं उड़ाई गई है.... ये तो आलोचक हैं, जो ख़ुद को हंसने से नहीं रोक पाए, फ़िल्म देखते हुए कुछ देर बाद उन्हे लगता है कि अरे वो तो ख़ुद पर ही हंस रहे हैं, और जब वो किसी तरह अपनी हंसी रोक भी लेते हैं तो ऑडिटोरियम में दर्शकों की हंसी उन्हे मुंह चिढ़ाती है। लेकिन ये दोष तो हंसने वालों का है ना, ना कि फ़िल्म बनाने वालो का।

अब देखिए, फ़िल्म की शुरुआत में ही बुधिया और नत्था अपनी ज़मीन चले जाने की कल्पना मात्र से परेशान हैं.... ऐसे में नत्था जो बुधिया के पीछे चल रहा है... गीत गुनगुनाने लगता है.... तभी बुधिया पीछे मुड़कर कहता है कि ‘ससुर यहां गां_ फटी पड़ी है और तुझे गाना सूझ रहा है।’, मेहरबानों-कद्रदानों अब ज़रा बताना कि इस सवांद में ठहाका लगाने वाली क्या बात है..? जबकि सिनेमाहॉल में इस सवांद पर ज़ोरदार ठहाका लगता है। अरे ज्ञानियों, दिन में ना जाने कितनी बार दफ़्तर में किसी ज़रूरी काम के दबाव में अपने सहकर्मियों से ऐसा बोलते होंगे आप... तो क्या आप कॉमेडी कर रहे होते हैं..? या फिर अपनी झिझक मिटाने को और अपने ठहाके को जस्टीफ़ाई करने के लिए.... आप फ़िल्म को दोष देकर ये सोच रहे हो कि आपने तो आमिर, अनुषा और महमूद की क्लास ले ली।

माफ़ी चाहूंगा, लेकिन क्रांति लाने का दावा करने वाले टीवी के कुछ पत्रकार जहां सालों की वरिष्ठता कमाने के बाद भी एक अच्छी स्टोरी कवर नहीं कर पाते... अपनी स्टोरी की स्क्रिप्ट तक नहीं लिख पाते, वहां पत्रकार रहे अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारूकी ने एक गंभीर विषय पर लाजवाब फ़िल्म बनाई.... एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने के लिए देश के दर्शक टूट पड़े हैं। फ़िल्म के मेकर पहले ही जानते होंगे कि उन्हे कुछ अधपके दिमागों की आलोचनाओं से दो-चार होना पड़ेगा। लेकिन की फ़र्क पैंदा है। जो मीडियाकर्मी इस फ़िल्म की आलोचना कर रहे हैं उन्हे बता दूं कि सीधा सा सिद्धांत है, आपको लगता है कि पीपली लाइव एक बकवास फ़िल्म है, तो केवल आपके बकवास कह देने से फ़िल्म की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाएगा, क्योंकि कई बार बकवास दिखाने की आलोचनाएं झेलने के बाद भी मीडिया की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाता है? आप फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' पर क्यों खामोश रहे, जबकि उस फ़िल्म में भी पत्रकारों की भूमिका घेरे में ही दिखाई गई है। बताया गया है कि गैरज़िम्मेदाराना पत्रकारिता किस तरह विध्वंस का कारण बन सकती है। लेकिन कुछ भाईलोग इसलिए परेशान हैं क्योंकि फ़िल्म 'पीपली लाइव' देखकर सिनेमाहॉल से बाहर निकलते शायद उन्हे शर्म महसूस हुई है। आईना देखकर डरना नहीं, संवरना चाहिए।

और फिर क्या ये सच नहीं है कि इस फ़िल्म को लेकर मीडिया का इंटरेस्ट भी आमिर खान में ही ज़्यादा रहा। आमिर का नाम जोड़कर फ़िल्म की सबसे ज़्यादा पब्लिकसिटी भी तो मीडिया ने ही की। आमिर से बड़ा कोई और नाम भी तो इस फ़िल्म से नहीं जुड़ा था। रही बात निर्देशक के काम की तारीफ़ की तो वो तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद की ही बात है, और फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद अनुषा और महमूद को किसने नहीं जाना।

आमिर ने इस संबंध में पूछे गए सवाल पर हमारे चैनल में सही कहा था कि अनुषा ने इस फ़िल्म में किसी को नहीं छोड़ा। कोई राजनेता इस फ़िल्म को देखेगा तो उसे लगेगा कि किसानों, मीडियावालों और पुलिसवालों के बारे जो दिखाया गया वो तो एकदम ठीक है लेकिन हमारी छवि को नुकसान पहुंचाया गया है। और ऐसा ही पुलिसवालों, मीडियाकर्मियों और किसानों को भी लग सकता है। और यही तो लग रहा है।

और जो लोग ये कह रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर विषय का मज़ाक बनाया गया है, वो अपनी विशलेषणात्मक प्रतिभा का लाभ उठाते हुए ये क्यों नहीं सोचते कि इस फ़िल्म में ये दिखाया गया कि किसी के बहकावे में आकर कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए, जैसा नत्था और बुधिया ने उठाया। और फिर मेले-तमाशे वालों ने उठाया, मीडिया ने उठाया, नेताओं ने उठाया। बेचारे लोग किस तरह से अव्यवस्था के संक्रमण का शिकार हो जाते हैं और व्यवस्था कैसे किसी कि मजबूरी का फ़ायदा उठाती है ये फ़िल्म की थीम है। ग़रीब, दबे-कुचले लोग इस देश में रहनुमाओं के लिए एक लतीफ़ा ही तो हैं। वरना किसे न्याय मिला है आज तक..? क्या ग़लत कहती है फ़िल्म की यहां मरने के बाद तो मुआवज़ा मिलता है लेकिन किसी को कुव्यवस्था से प्रताड़ित होकर मरने से रोकने के लिए कोई योजना नहीं है। ये फ़िल्म ऐसे किसानों के लिए काम करने का दावा करने वाले ngo’s पर भी निशाना साधती है।

फ़िल्म की महिला रिपोर्टर भी तो फ़िल्म में पीपली गांव के स्थानीय रिपोर्टर से कहती है कि ‘अगर तुम्हे PUBLIC INTEREST में ख़बर की अहमियत को अंदाज़ा नहीं है तो I M SORRY, U R IN THE WRONG PROFFESION’ और बाद में उस संवेदनशील स्थानीय पत्रकार की मौत हो जाती है। मैं अब तक नहीं समझ पाया हूं कि अनुषा ने फ़िल्म में इस सीक्वेंस के ज़रिए एक फ़िल्मी किरदार की मौत दिखाई है या पत्रकारिता की मौत का संकेत दिया है।

माफ़ कीजिएगा, पीपली लाइव पर ये मेरी नितांत निजी राय हो सकती है।

23 comments:

Aadarsh Rathore said...

hदरअसल वह पत्रकारिता की ही मौत है... भले ही निर्देशक ने ये इरादन न दिखाना चाहा हो लेकिन उस पत्रकार की मौत कहीं न कहीं पत्रकारिता की मौत को ही दिखाती है. अनजाने में यह घटना गहरे अर्थों वाली बन गई है शायद. फिल्म वाकई अच्छी है इसे सहारे की ज़रूरत नहीं.

Prashant said...

बिलकुल सही फ़रमाया अनुराग जी आपने.. मेरे हिसाब से इस दुनिया का सबसे आसान काम है 'आलोचना' करना , और सबसे कठिन काम है 'आलोचना झेलना', आज जब आप की ओर ऊँगली की जा रही है तो 'धरती' क्यूँ फटी जा रही है? स्वस्थ प्रतिक्रिया के साथ उसको स्वीकारना होगा .. मेरी व्यक्तिगत राय में फिल्म का असली हीरो तो स्थानीय अखबार में काम करने वाला वो 'अदना' सा 'स्ट्रिंगर' था , जो इलेक्ट्रौनिक मीडिया के ग्लैमर से वशीभूत होकर 'जान लगा देता है, और वह भी मुफ्त में' इसी उम्मीद से कि स्वप्न नगर से आई ये 'पारी' उसको उसी स्वर्ग में ले जाएगी...और अंत में उसका सपना स्वर्ग में ही जा के टूटता है...

MANOJ SRIVASTAVA said...

पब्लिसिटी औऱ आमिर के नाम का असर तो है....इसमें महंगाई डायन का भी हाथ है....अन्यथा फिल्म अच्छी है बस....अनुशा रिजवी ने ये भूलकर फिल्म बनाई है कि वो पत्रकार रही हैं.....हमें भी ये भूलकर फिल्म देखनी चाहिए कि हम क्या काम करते हैं....नहीं तो सतही लगती है फिल्म....मनोरंजन के माध्यम को मनोरंजन की तरह ही लिया जाना चाहिए.....

Pankaj Narayan said...

भाई जान, आपका ब्लॉग भी आपकी एंकरिंग की तरह आत्मविश्वास से भरा हुआ है।

खूबसूरत तो है हीं। पहली बार आया। बार- बार आउंगा।

एक अलग बात जो इस फिल्म से भी जुड़ी है, लेकिन उस तरह से नहीं। दो बड़ी फिल्में जिसमें सबकुछ था, अच्छा डायरेक्टर, अनुभवी प्रोड्यूशर, कमाल का लोकेशन... आदि आदि और वे दोनों फिल्में बुरी तरह पिट गईं। रावण और काइट की अच्छी स्क्रीप्ट न होने से सब कुछ बेकार गया न। इन फिल्मों के पिटने और पीपली लाइव के हिट होने को एक स्क्रीप्ट की सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए।

Richa Sakalley said...

सही कहा अनुराग...फिल्म में राकेश की मौत वाकई पत्रकारिता के अंत को ही बताती है...सच तो यही है कि रियल लाइफ में पत्रकार नाम का प्राणी हर रोज ही मरता है...मेरे एक अच्छे पत्रकार माने जाने वाले मित्र अब अक्सर मुझसे कहते हैं क्या है.. बस खाते में पैसे आ जाते हैं.. चुपचाप काम करो और घर चलो...जो काम हाथ में आया जितना भी काम दिया गया उसे निपटाओ और घर जाकर सो जाओ..बस सिर्फ यस बॉस करो..ज्यादा मत सोचो...कोई इनीशिएटिव मत लो..कोई आइडिया मत दो वरना दुश्मन बन जाएंगे...क्या ये पत्रकार और पत्रकारिता की मौत नहीं है?..पीपली लाइव एक अच्छी फिल्म है..एक अच्छा व्यंग्य है.. और आने वाले वक्त में वाकई ऐसी ही रिपोर्ट आएंगी जैसी उसमें रिपोर्टर दीपक दिखाता है...मैं तो अब सिर्फ इंतजार कर रही हूं...और जो लोग ये मानते हैं कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है और उसे मनोरंजन की तरह लिया जाना चाहिए तो मुझे उनकी छोटी बुद्धि होने पर तरस आता है...

शिवम् मिश्रा said...

बढ़िया रहा यह आलेख आपका 'पीपली लाइव' पर ! अभी फिल्म देखी नहीं है सो ज्यादा कुछ नहीं कह सकता !

आप की चोट अब कैसी है ? ऑफिस जोइन किया या नहीं ? अपना ख्याल रखियेगा !

विनीत कुमार said...

मैं अब तक नहीं समझ पाया हूं कि अनुषा ने फ़िल्म में इस सीक्वेंस के ज़रिए एक फ़िल्मी किरदार की मौत दिखाई है या पत्रकारिता की मौत का संकेत दिया है।
आप अगर इस फिल्म में पत्रकार राकेश की मौत को बाकी फिल्मों के साथ जोड़कक देखें तो अंदाजा लग जाएगा कि ये फिल्म बाकी के चैनलों पर बनी फिल्म से किस तरह अलग है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक ट्रू जर्नलिस्ट किस तरह तिल-तिल कर मर रहा है और जर्नलिज्म खत्म हो रही है,इसका सहज ही अंदाजा लग जाएगा। आपने अच्छा लिखा है।.

Prabhat Shunglu said...

बढ़िया, अनुराग। न्यूज़ चैनलों में रिपोर्टर की मौत हो चुकी है। जो पत्रकार फिल्म और आमिर को अब भी गाली दे रहे, उन्होने तय कर लिया है कि वो नहीं सुधरेंगे। मेरी कोशिश अब उनको सुधारने की भी नहीं रह गई। बल्कि अब ऐसी कौम को दंडित करने का वक्त आ गया है। mediasarkar.com par mera interview chhapa hai..padhna..

फ़िरदौस ख़ान said...

हमेशा की तरह अच्छा आलेख है... हम मीडिया के तीनों माध्यमों में रहे हैं...अख़बार, रेडियो और न्यूज़ चैनल... न्यूज़ चैनलों से तो पत्रकार ग़ायब हैं... हैरानी की बात तो यह भी है कि न्यूज़ चैनलों के माफ़िया भाषण तो बहुत देते हैं, लेकिन इस सब के लिए क्या वो अपनी ज़िम्मेदारी भी तय करेंगे...? वे ख़ुद नहीं चाहते कि न्यूज़ चैनलों में अखबारी दुनिया के वरिष्ठ लोग आएं...क्योंकि ऐसा करने से उनकी दुकानदारी बंद हो जाएगी...

Unknown said...

सही लेख लिखा है आपने.

मेरा ब्लॉग
खूबसूरत, लेकिन पराई युवती को निहारने से बचें
http://iamsheheryar.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html

express4india said...

अनुराग जी,

आपकी बात में काफी दम है ।
होता ये है कि कई बार जब हमारी कमजोरी को कोई सामने लाता है तो हम उसे सहन नही कर पाते है। और उल्टे उसी में दोष निकालने लगते है।
मै भी मीडिया में हूँ, और रोज देखता हूँ कि खबरे कैसे बनती है, नेताओ के क्या कार्यकलाप है, पुलिस कितनी कामयाब है और देश में किसानो का क्या हाल है।

@ S K Sudhanshu

डॉ .अनुराग said...

कुल मिलकर दो चीज़े अच्छी है ....मेन स्ट्रीम के कलाकार सार्थक सिनेमा में आ रहे है ओर ये विश्वास बन रहा है के अच्छे सिनेमा के भी दर्शक होते है.....कम से कम दोबारा एक नयी प्रथा शुरू होगी........बरसो पहले शशि कपूर ने भी इस तरह में इस्ट्रीम में रहते हुए श्याम बेनेगल के साथ मिलकर कई सार्थक फिल्मे दी थी .......अजय देवगन तो थोडा बहुत कर ही रहे थे ..... .दूसरा मीडिया थोडा बायस भी है यहाँ क्यूंकि उनके पत्रकार बंधू ने फिल्म बनायीं है .......तीसरा इससे ये भी पता चलता है .....के थोड़ी बहुत मार्केटिंग भी करनी चाहिए अपनी फिल्मो की खातिर......

पंकज मिश्रा said...

अनुराग जी, आप एंकरिंग अच्छी करते हैं और ब्लॉग पर कभी कभार लिख भी अच्छा देते हैं।
माफ कीजिएगा, इस पोस्ट में आप कहना क्या चाहते हैं यह मैं नहीं समझ पा रहा हूं। शुरुआत में आप आमिर खान के होने या न होने की बात करते हैं। आमिर आपकी नजर में बड़े स्टार नहीं, जो अपनी किसी फिल्म को निश्चित रूप से हिट करा सकें, मैं यह जानना चाहता हूं कि ऐसा कौन सा स्टार है जो फिल्म को यकीनन हिट करा सके। शायद मिलेनियम के सवश्रेष्ठ अभिनेता का दर्जा पा चुके अमिताभ भी यह पक्के तौर पर नहीं कह सकते। और किसी तो बात ही क्या की जाए।
माफी चाहूंगा, जिस अनुषा की आप तारीफ कर रहे हैं। वे मैदान छोड़ महिला हैं। अगर इतना ही दम था तो पत्रकारिता के पेशे में रहकर ही मीडिया को बदलना था ना। क्यों पीठ दिखा गईं। जैसा की मेरे एक भाई ने कहा कि आलोचना करना आसान है सही है। मीडिया को गाली देना आसान है। मीडिया क्या किसी को भी गाली देना आसान है। माना कि मीडिया गलत रास्ते पर चल पड़ा है। लेकिन क्या होना चाहिए यह भी बताइए ना। बुरा मत मानिएगा, आज एक ट्रेंंड सा चल पड़ा है, मीडिया को गाली दीजिए और हिट हो जाइए। मीडिया उसकी आलोचना करेगा और आप हिट हो जाएंगे।
एक बात और अगर इस फिल्म के साथ अािमर खान का नाम न जुड़ा होता तो शायद आप इसकी समीक्षा नहीं लिखते। क्यों नहीं आपने अन्य फिल्मों की समीक्षा लिखी।
खैर, आप भी पत्रकार हैं और मैं भी। इसलिए अगर कोई बेवजह पत्रकारिता या मीडिया को गाली देता है तो मुझे बुरा लगता है, आपको नहीं लगता तो बात अलग है।

अनुराग मुस्कान said...

प्रतिक्रिया के लिए सभी का धन्यवाद करना चाहूंगा...

पंकज मिश्रा जी कुछ उखड़े हुए जान पड़ते हैं, उनसे यही कहना है कि भईए... पीपली का विश्लेषण मेरी नितांत निजी राय है और इस पर आपकी प्रतिक्रिया को भी मैं आपकी नितांत निजी राय के तौर पर ले रहा हूं.... पंकज जी क्रोध अक्ल को खा जाता है... मेरी बातों को अन्यथा ना लें बल्कि इस आलेख को ग़ुस्सा थूक कर दोबारा पढ़ें... मैं जो कहना चाहता हूं शायद आप समझ पाएं...।

धन्यवाद!

sanu shukla said...

"आईना देखकर डरना नहीं, संवरना चाहिए।"


बेहतरीन समीक्षात्मक पोस्ट है भाईसाहब ..!!

हरि जोशी said...

जहां खबरें प्रोफाइल देखकर तय होती हों, जहां खबरें रेवेन्‍यू को ध्‍यान में रखकर लिखीं या संपादित की जाती हैं, जहां टीआपी के लिए अंधविश्‍वास परोसा जाता है, वहां के कारिंदों को इस तरह की बकवास शोभा नहीं देती। जब राजनीति के गलियारों में आकाओं की गोद में बैठकर खबरें प्‍लांट होती हों, जहां रिपोर्टर अपने आकाओं को खुश रखने वाला और उनकी इच्‍छाओं की पूर्ति करने वाला खिलौना हो। जहां चप्‍पल और जूते बेचने वाले, भूमाफिया, दलाल और बिना पढ़े-लिखे, दो शब्‍द भी शुद्ध न लिखने वाले पत्रकार बन गए हों, जहां अस्‍मत बेचकर स्‍टार रिपोर्टर बनने वाली विदुषियों के किस्‍से चटकारे लेकर सुनाए जाते हों...ऐसे पतन के माहौल में अगर कुछ वेश्‍याएं रामायण पढ़ रहीं हैं तो क्‍या कहा जाए...जय हो

Bhavya said...

माननीय हरिजी, नेता की प्रोफाइल मीडिया दिखाए, अभिनेता का कुकर्म मीडिया दिखाए, और फिर सब चिल्लाएं कि निगेटिव हो गया है मीडिया। जब सकारात्मक दिखाएं, तो कहिए कि मीडिया बिक गया हैं। अंधविश्वास के इस देश में सब सच्चाई दिखने लगे, आप भी बिलबिला जाएंगे। राजनैतिक आकाओं ने अपनी बात कहने के लिए चैनल खोल रखें है, कईयों में पैसा लगा रखा है। खबरों में खबर खोजने का वक्त टीवी नहीं देता, लाइव जाना मजबूरी हो चला है। सो कई बार जो आता है, वो चल जाता है, तब कहिए कि प्रेस कांफ्रेस चलाकर चाटुकारिता कर रहे हैं। गांव देहात में पढ़ा लिखा नहीं मिलेगा, तो कहां से पैदा किए जाएं स्थानीय संवाददाता। पान वाला, चाय वाला, दुकान वाला बिना पैसा काम करता है कई नामधन्य पेपरों के लिए। टीवी तो फिर भी पैसा देता है, काम के लिए। इस पुऱूषवादी समाज में नारी कहां सुरक्षित है, स्त्री की अस्मत को नारी भर तक ही सोचते हैं। पत्रकार समाज के लिए काम करे, तो अच्छा, फिल्म बनाए तो वेश्या रामायण क्यों पढ़े। बढिया है। आप जैसों की ही जरूरत है।

Unknown said...

Its an exellent post Anuraag sir..though I have not yet seen the movie Peepli Live, but the way you described the message is really appreciative.....
and the punch line I like the most is "Aaina dekhkar darna nahi, savarna chahiye"......exellent

प्रवीण विस्टन जैदी said...

vyou right anurag.in this world nobody is perfect even media.but media playing a major role in our life with awareness.i am very thankful for such a media but i can say black sheep is everywhere and it is also in media.i want to in movie WEDNESDAY a reporter ask to person "how are you feeling?" and the person was socked by electric current.and i can write here the news channel name INDIA TV what they are telecasting and in other hand some good news channel's are NDTV STAR TIMES. finally i want to" nothing good or bad in this world only thinking make it so."

Anonymous said...

बहुत सही और सटीक - शानू शुक्ल की टिपण्णी ने तो बहुत बड़ी बात कह दी

मोहक शर्मा said...

आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ अनुराग जी....
लेकिन देख रहा हूँ यह कुछ लोग है पंकज मिश्रा जैसे जो बस अपनी ही बोलना जानते है..कुछ सुनने का दम नही रखते है....एक तरफ तो अपने आप को पत्रकार बताते है वहीँ ये भूल जाते है कि एक अच्छे पत्रकार की क्या पहचान है?
सबकी सुनना और फिर उस पर अमल करना.....

हरि जोशी said...

माननीय भव्‍य जी, आप पत्रकार और सुधी व्‍यक्ति हैं..पहले दिमाग लगाकर मेरी टिप्‍पणी पढ़ लें और फिर मनन करें कि कौन सी वेश्‍या रामायण पढ़ रही है...मेरी टिप्‍पणी से पहले अनुराग जी की समीक्षा को भी गौर से पढ़ लीजिए।
सादर

Prashant said...

एक स्ट्रिंगर के मर्म को दर्शाती लघु कथा .. ज़रूर पढ़ें http://kranteekalamki.blogspot.com/2010/09/blog-post.html