सालों बाद कोई कविता लिख रहा हूं... यही कोई दस साल बाद... मन के दर्द सहते विचार उद्धेलित होकर जमा हो गए थे, उन्ही के बिखराव को शायद कविता कहने की यह भूल भी हो सकती है...
जो भी है, प्रस्तुत है-
मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।।
जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!
7 comments:
कविता अच्छी है ।
फोटू बदल दिया है ।अच्छा है यह भी ।
मॉडलिंग वॉडलिंग करते हो कया?
सुंदर!!
बैठे ठाले
मजे की लिख डाले
बैठे ठाले
मजे की लिख डाले
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
वाह ! सुंदर अभिव्यक्ति!!!
थोडी-सी ग़लतफ़्हेमी ज़िंदगी का मोड बदल देती है।
अच्छी/सुंदर कविता।
आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
bahut sundar...
"अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।"
दर्शन और काव्य सौष्ठव का अनुपम समावेश.
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