अरे भई... ये ए. आर. रहमान कौन है? क्योंकि जिस रहमान को हम जानते हैं वो तो इस देश का सबसे रचनात्मक संगीतकार है। सबसे महान। और हम ये भी जानते हैं कि एक कलाकार तभी महान बनता है, जब वो एक अच्छा इंसान हो। रहमान भी इसलिए महान हुए। लेकिन ये रहमान कौन है? ये ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’ वाला। ये वो रहमान तो नहीं है। कहीं से भी नहीं है। ये वो ऑस्कर लाने वाला रहमान हो ही नहीं सकता।
अख़बारों में ख़बर छपी कि रहमान ने कॉमनवेल्थ गेम्स का एंथम बनाने के लिए 15 करोड़ रुपयों की मांग की। सौदा साढ़े पांच करोड़ में पटा। और बन गया, ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’। उम्मीद थी कि रहमान जादू कर देंगे। जैसा कि वो करते आए हैं। उम्मीद थी कि शकीरा के वाका-वाका की नानी याद आ जाएगी। लेकिन हो गया अपना ही टांय-टांय फिस्स। अब थू-थू हो रही है। सवाल उठ रहे हैं कि इस गीत का मुखड़ा ही बेहद अजीबोग़रीब है। इसमें हिन्दी ही सही नहीं है। ना संगीत की कसौटी पर खरा, ना गीत की कसौटी पर और ना रोमांच की कसौटी पर।
कॉमनवेल्थ गेम्स के वरिष्ठ उपाध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा इस गीत को सुनकर भनभना रहे हैं। कांग्रेस वाले भी मुंह बिचकाए घूम रहे हैं। पता नहीं शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी और उनके मंत्री समूह ने इस गीत को पास कैसे कर दिया?
लेकिन शिकायत इन राजनेताओं से नहीं है। इनकी तो ज़ात ही ऐसी है। शिकायत तो रहमान से है। जो 15 करोड़ और साढ़े पांच करोड़ के गीत में फ़र्क कर गए। कॉमनवेल्थ गेम्स का एंथम बनाने के लिए रहमान पर कोई दबाव नहीं था। कोई मजबूरी भी नहीं थी उनकी। मना कर देते। नहीं बनाऊंगा गीत अगर 15 करोड़ से एक पैसा भी कम दोगे तो। कम से कम अपने फ़न और देश के साथ धोखा करने के इल्ज़ाम से तो बच जाते। पंद्रह से साढ़े पांच करोड़ की बार्गेनिंग में अपना स्तर भी गिरा लिया। और अगर इतने ही महान हैं रहमान तो देश के सम्मान और गौरव(?) की ख़ातिर मुफ़्त में ही बना देते गीत। बिना पैसे और पुरुस्कार का लालच किए। तब वो शायद और भी महान कहलाते। पैसा कमाने के और भी विकल्प और अवसरों की कमी तो है नहीं रहमान को।
लाख़ों-करोड़ो के फेर से कहीं ऊपर उठ चुके रहमान ने साढ़े पांच करोड़ में बनाया भी तो क्या, ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’। मतलब ये कि अगर डील एक करोड़ में तय होती तो क्या रहमान कोई ‘भोजपुरी’ गाना दे देते। दे ही देते शायद। वैसे भी रहमान कोई भोजपुरी गाना बनाएंगे तो कम से कम लागत तो एक करोड़ ही आएगी। तामझाम तो पूरा लगाएंगे ही ना। देखा आपने, तंज़ ही तंज़ में कितनी सीरियस बात सामने आ गई। सीरियसली कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए कोई भोजपुरी गाना ही होना चाहिए था। इससे एक तो हिन्दुस्तान की इस अहम क्षत्रीय भाषा को एक जायज़ मुकाम, अंतर्राष्ट्रीय पहचान और सम्मान भी मिल जाता और दूसरा भोजपुरी गीत बेशक़ रहमान के ‘ओ...यारो ये इंडिया बुला लिया...’, से कहीं बेहतर भी होता।
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Tuesday, August 31, 2010
Sunday, August 15, 2010
पीपली लाइव का इतना पोस्टमॉर्टम क्यों...?
क्या आमिर खान किसी फ़िल्म से अपना नाम जोड़कर उसे एक अमर कृति बना सकते हैं...? शायद नहीं...। मेरा मानना है कि कोई भी फ़िल्म सिर्फ़ दर्शकों की नज़र-ए-इनायत पर जीती या मरती है। अरे... बाक्स ऑफ़िस गवाह है, कि आमिर ख़ुद अपनी कई फ़िल्में उसमें हीरो होते हुए भी नहीं बचा पाए थे। लेकिन देख रहा हूं कि मीडिया के कुछ अंधविश्वासी लोग लगातार ये कह रहे हैं कि अगर आमिर का नाम इस फ़िल्म से नहीं जुड़ता तो इसका भविष्य अंधकार में होता। ऐसा नहीं है भाई, फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' को किस आमिर खान ने प्रमोट किया था? फ़िल्म बिना किसी सैलिब्रिटी स्टेट्स के हिट हुई या नहीं।
'पीपली लाइव' के बारे में ये कथित बुद्धिजीवी कहते फिर रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या और मीडिया का मज़ाक बनाया गया है। मैं भी मानता हूं कि इस फ़िल्म में एक गंभीर विषय को थोड़ा मज़ाहिया लहजे में पेश किया गया लगता है, लेकिन वो सब वास्तविकता के धरातल पर है। सब कुछ सिचुएशनल है, जिसे देखकर हंसी आ जाना इंसान की स्वाभाविक प्रवृति का एक पक्ष है। इस फ़िल्म में किसी किरदार, किसान या विषय की खिल्ली नहीं उड़ाई गई है.... ये तो आलोचक हैं, जो ख़ुद को हंसने से नहीं रोक पाए, फ़िल्म देखते हुए कुछ देर बाद उन्हे लगता है कि अरे वो तो ख़ुद पर ही हंस रहे हैं, और जब वो किसी तरह अपनी हंसी रोक भी लेते हैं तो ऑडिटोरियम में दर्शकों की हंसी उन्हे मुंह चिढ़ाती है। लेकिन ये दोष तो हंसने वालों का है ना, ना कि फ़िल्म बनाने वालो का।
अब देखिए, फ़िल्म की शुरुआत में ही बुधिया और नत्था अपनी ज़मीन चले जाने की कल्पना मात्र से परेशान हैं.... ऐसे में नत्था जो बुधिया के पीछे चल रहा है... गीत गुनगुनाने लगता है.... तभी बुधिया पीछे मुड़कर कहता है कि ‘ससुर यहां गां_ फटी पड़ी है और तुझे गाना सूझ रहा है।’, मेहरबानों-कद्रदानों अब ज़रा बताना कि इस सवांद में ठहाका लगाने वाली क्या बात है..? जबकि सिनेमाहॉल में इस सवांद पर ज़ोरदार ठहाका लगता है। अरे ज्ञानियों, दिन में ना जाने कितनी बार दफ़्तर में किसी ज़रूरी काम के दबाव में अपने सहकर्मियों से ऐसा बोलते होंगे आप... तो क्या आप कॉमेडी कर रहे होते हैं..? या फिर अपनी झिझक मिटाने को और अपने ठहाके को जस्टीफ़ाई करने के लिए.... आप फ़िल्म को दोष देकर ये सोच रहे हो कि आपने तो आमिर, अनुषा और महमूद की क्लास ले ली।
माफ़ी चाहूंगा, लेकिन क्रांति लाने का दावा करने वाले टीवी के कुछ पत्रकार जहां सालों की वरिष्ठता कमाने के बाद भी एक अच्छी स्टोरी कवर नहीं कर पाते... अपनी स्टोरी की स्क्रिप्ट तक नहीं लिख पाते, वहां पत्रकार रहे अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारूकी ने एक गंभीर विषय पर लाजवाब फ़िल्म बनाई.... एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने के लिए देश के दर्शक टूट पड़े हैं। फ़िल्म के मेकर पहले ही जानते होंगे कि उन्हे कुछ अधपके दिमागों की आलोचनाओं से दो-चार होना पड़ेगा। लेकिन की फ़र्क पैंदा है। जो मीडियाकर्मी इस फ़िल्म की आलोचना कर रहे हैं उन्हे बता दूं कि सीधा सा सिद्धांत है, आपको लगता है कि पीपली लाइव एक बकवास फ़िल्म है, तो केवल आपके बकवास कह देने से फ़िल्म की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाएगा, क्योंकि कई बार बकवास दिखाने की आलोचनाएं झेलने के बाद भी मीडिया की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाता है? आप फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' पर क्यों खामोश रहे, जबकि उस फ़िल्म में भी पत्रकारों की भूमिका घेरे में ही दिखाई गई है। बताया गया है कि गैरज़िम्मेदाराना पत्रकारिता किस तरह विध्वंस का कारण बन सकती है। लेकिन कुछ भाईलोग इसलिए परेशान हैं क्योंकि फ़िल्म 'पीपली लाइव' देखकर सिनेमाहॉल से बाहर निकलते शायद उन्हे शर्म महसूस हुई है। आईना देखकर डरना नहीं, संवरना चाहिए।
और फिर क्या ये सच नहीं है कि इस फ़िल्म को लेकर मीडिया का इंटरेस्ट भी आमिर खान में ही ज़्यादा रहा। आमिर का नाम जोड़कर फ़िल्म की सबसे ज़्यादा पब्लिकसिटी भी तो मीडिया ने ही की। आमिर से बड़ा कोई और नाम भी तो इस फ़िल्म से नहीं जुड़ा था। रही बात निर्देशक के काम की तारीफ़ की तो वो तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद की ही बात है, और फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद अनुषा और महमूद को किसने नहीं जाना।
आमिर ने इस संबंध में पूछे गए सवाल पर हमारे चैनल में सही कहा था कि अनुषा ने इस फ़िल्म में किसी को नहीं छोड़ा। कोई राजनेता इस फ़िल्म को देखेगा तो उसे लगेगा कि किसानों, मीडियावालों और पुलिसवालों के बारे जो दिखाया गया वो तो एकदम ठीक है लेकिन हमारी छवि को नुकसान पहुंचाया गया है। और ऐसा ही पुलिसवालों, मीडियाकर्मियों और किसानों को भी लग सकता है। और यही तो लग रहा है।
और जो लोग ये कह रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर विषय का मज़ाक बनाया गया है, वो अपनी विशलेषणात्मक प्रतिभा का लाभ उठाते हुए ये क्यों नहीं सोचते कि इस फ़िल्म में ये दिखाया गया कि किसी के बहकावे में आकर कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए, जैसा नत्था और बुधिया ने उठाया। और फिर मेले-तमाशे वालों ने उठाया, मीडिया ने उठाया, नेताओं ने उठाया। बेचारे लोग किस तरह से अव्यवस्था के संक्रमण का शिकार हो जाते हैं और व्यवस्था कैसे किसी कि मजबूरी का फ़ायदा उठाती है ये फ़िल्म की थीम है। ग़रीब, दबे-कुचले लोग इस देश में रहनुमाओं के लिए एक लतीफ़ा ही तो हैं। वरना किसे न्याय मिला है आज तक..? क्या ग़लत कहती है फ़िल्म की यहां मरने के बाद तो मुआवज़ा मिलता है लेकिन किसी को कुव्यवस्था से प्रताड़ित होकर मरने से रोकने के लिए कोई योजना नहीं है। ये फ़िल्म ऐसे किसानों के लिए काम करने का दावा करने वाले ngo’s पर भी निशाना साधती है।
फ़िल्म की महिला रिपोर्टर भी तो फ़िल्म में पीपली गांव के स्थानीय रिपोर्टर से कहती है कि ‘अगर तुम्हे PUBLIC INTEREST में ख़बर की अहमियत को अंदाज़ा नहीं है तो I M SORRY, U R IN THE WRONG PROFFESION’ और बाद में उस संवेदनशील स्थानीय पत्रकार की मौत हो जाती है। मैं अब तक नहीं समझ पाया हूं कि अनुषा ने फ़िल्म में इस सीक्वेंस के ज़रिए एक फ़िल्मी किरदार की मौत दिखाई है या पत्रकारिता की मौत का संकेत दिया है।
माफ़ कीजिएगा, पीपली लाइव पर ये मेरी नितांत निजी राय हो सकती है।
'पीपली लाइव' के बारे में ये कथित बुद्धिजीवी कहते फिर रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या और मीडिया का मज़ाक बनाया गया है। मैं भी मानता हूं कि इस फ़िल्म में एक गंभीर विषय को थोड़ा मज़ाहिया लहजे में पेश किया गया लगता है, लेकिन वो सब वास्तविकता के धरातल पर है। सब कुछ सिचुएशनल है, जिसे देखकर हंसी आ जाना इंसान की स्वाभाविक प्रवृति का एक पक्ष है। इस फ़िल्म में किसी किरदार, किसान या विषय की खिल्ली नहीं उड़ाई गई है.... ये तो आलोचक हैं, जो ख़ुद को हंसने से नहीं रोक पाए, फ़िल्म देखते हुए कुछ देर बाद उन्हे लगता है कि अरे वो तो ख़ुद पर ही हंस रहे हैं, और जब वो किसी तरह अपनी हंसी रोक भी लेते हैं तो ऑडिटोरियम में दर्शकों की हंसी उन्हे मुंह चिढ़ाती है। लेकिन ये दोष तो हंसने वालों का है ना, ना कि फ़िल्म बनाने वालो का।
अब देखिए, फ़िल्म की शुरुआत में ही बुधिया और नत्था अपनी ज़मीन चले जाने की कल्पना मात्र से परेशान हैं.... ऐसे में नत्था जो बुधिया के पीछे चल रहा है... गीत गुनगुनाने लगता है.... तभी बुधिया पीछे मुड़कर कहता है कि ‘ससुर यहां गां_ फटी पड़ी है और तुझे गाना सूझ रहा है।’, मेहरबानों-कद्रदानों अब ज़रा बताना कि इस सवांद में ठहाका लगाने वाली क्या बात है..? जबकि सिनेमाहॉल में इस सवांद पर ज़ोरदार ठहाका लगता है। अरे ज्ञानियों, दिन में ना जाने कितनी बार दफ़्तर में किसी ज़रूरी काम के दबाव में अपने सहकर्मियों से ऐसा बोलते होंगे आप... तो क्या आप कॉमेडी कर रहे होते हैं..? या फिर अपनी झिझक मिटाने को और अपने ठहाके को जस्टीफ़ाई करने के लिए.... आप फ़िल्म को दोष देकर ये सोच रहे हो कि आपने तो आमिर, अनुषा और महमूद की क्लास ले ली।
माफ़ी चाहूंगा, लेकिन क्रांति लाने का दावा करने वाले टीवी के कुछ पत्रकार जहां सालों की वरिष्ठता कमाने के बाद भी एक अच्छी स्टोरी कवर नहीं कर पाते... अपनी स्टोरी की स्क्रिप्ट तक नहीं लिख पाते, वहां पत्रकार रहे अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारूकी ने एक गंभीर विषय पर लाजवाब फ़िल्म बनाई.... एक ऐसी फ़िल्म जिसे देखने के लिए देश के दर्शक टूट पड़े हैं। फ़िल्म के मेकर पहले ही जानते होंगे कि उन्हे कुछ अधपके दिमागों की आलोचनाओं से दो-चार होना पड़ेगा। लेकिन की फ़र्क पैंदा है। जो मीडियाकर्मी इस फ़िल्म की आलोचना कर रहे हैं उन्हे बता दूं कि सीधा सा सिद्धांत है, आपको लगता है कि पीपली लाइव एक बकवास फ़िल्म है, तो केवल आपके बकवास कह देने से फ़िल्म की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाएगा, क्योंकि कई बार बकवास दिखाने की आलोचनाएं झेलने के बाद भी मीडिया की सेहत पर क्या फ़र्क पड़ जाता है? आप फ़िल्म 'तेरे बिन लादेन' पर क्यों खामोश रहे, जबकि उस फ़िल्म में भी पत्रकारों की भूमिका घेरे में ही दिखाई गई है। बताया गया है कि गैरज़िम्मेदाराना पत्रकारिता किस तरह विध्वंस का कारण बन सकती है। लेकिन कुछ भाईलोग इसलिए परेशान हैं क्योंकि फ़िल्म 'पीपली लाइव' देखकर सिनेमाहॉल से बाहर निकलते शायद उन्हे शर्म महसूस हुई है। आईना देखकर डरना नहीं, संवरना चाहिए।
और फिर क्या ये सच नहीं है कि इस फ़िल्म को लेकर मीडिया का इंटरेस्ट भी आमिर खान में ही ज़्यादा रहा। आमिर का नाम जोड़कर फ़िल्म की सबसे ज़्यादा पब्लिकसिटी भी तो मीडिया ने ही की। आमिर से बड़ा कोई और नाम भी तो इस फ़िल्म से नहीं जुड़ा था। रही बात निर्देशक के काम की तारीफ़ की तो वो तो फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद की ही बात है, और फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद अनुषा और महमूद को किसने नहीं जाना।
आमिर ने इस संबंध में पूछे गए सवाल पर हमारे चैनल में सही कहा था कि अनुषा ने इस फ़िल्म में किसी को नहीं छोड़ा। कोई राजनेता इस फ़िल्म को देखेगा तो उसे लगेगा कि किसानों, मीडियावालों और पुलिसवालों के बारे जो दिखाया गया वो तो एकदम ठीक है लेकिन हमारी छवि को नुकसान पहुंचाया गया है। और ऐसा ही पुलिसवालों, मीडियाकर्मियों और किसानों को भी लग सकता है। और यही तो लग रहा है।
और जो लोग ये कह रहे हैं कि इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर विषय का मज़ाक बनाया गया है, वो अपनी विशलेषणात्मक प्रतिभा का लाभ उठाते हुए ये क्यों नहीं सोचते कि इस फ़िल्म में ये दिखाया गया कि किसी के बहकावे में आकर कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए, जैसा नत्था और बुधिया ने उठाया। और फिर मेले-तमाशे वालों ने उठाया, मीडिया ने उठाया, नेताओं ने उठाया। बेचारे लोग किस तरह से अव्यवस्था के संक्रमण का शिकार हो जाते हैं और व्यवस्था कैसे किसी कि मजबूरी का फ़ायदा उठाती है ये फ़िल्म की थीम है। ग़रीब, दबे-कुचले लोग इस देश में रहनुमाओं के लिए एक लतीफ़ा ही तो हैं। वरना किसे न्याय मिला है आज तक..? क्या ग़लत कहती है फ़िल्म की यहां मरने के बाद तो मुआवज़ा मिलता है लेकिन किसी को कुव्यवस्था से प्रताड़ित होकर मरने से रोकने के लिए कोई योजना नहीं है। ये फ़िल्म ऐसे किसानों के लिए काम करने का दावा करने वाले ngo’s पर भी निशाना साधती है।
फ़िल्म की महिला रिपोर्टर भी तो फ़िल्म में पीपली गांव के स्थानीय रिपोर्टर से कहती है कि ‘अगर तुम्हे PUBLIC INTEREST में ख़बर की अहमियत को अंदाज़ा नहीं है तो I M SORRY, U R IN THE WRONG PROFFESION’ और बाद में उस संवेदनशील स्थानीय पत्रकार की मौत हो जाती है। मैं अब तक नहीं समझ पाया हूं कि अनुषा ने फ़िल्म में इस सीक्वेंस के ज़रिए एक फ़िल्मी किरदार की मौत दिखाई है या पत्रकारिता की मौत का संकेत दिया है।
माफ़ कीजिएगा, पीपली लाइव पर ये मेरी नितांत निजी राय हो सकती है।
Friday, August 6, 2010
कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?
दिन में कई बार ऐसा लगता है जैसे रे-बैन का मेरे वो चश्मा मुझे याद कर रहा होगा। रो रहा होगा। वो ना भी रो रहा हो लेकिन उसकी याद में मेरी आंखें ज़रूर नम हो जाती हैं। हंसने की बात नहीं है। कुछ चीज़े बेजान होती हैं, लेकिन उनमें जान बसने लगती है। मेरे साथ जनपथ मार्केट में जो हादसा हुआ उसमें वो चश्मा भी चला गया। कोई उचक्का, वर्दीवाले गुंड़ों के सामने से उसे ले भागा। मेरा वो प्यारा रे-बैन या तो उस मुस्टंडे की नाक पर सजा होगा या मुमकिन है उसने अगले ही पल अगले ही चौराहे पर उसे 500 या 1000 रुपए में बेच खाया हो। कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?
मेरे लिए वो सिर्फ एक चश्मा नहीं था। जब पहली बार 6290/- का ख़रीदकर मैंने उसे पहना था तो एक तरह से बरसों पुराना एक ख़्वाब मेरी आंखों के सामने तामीर हो चुका था। बरसों की ज़िद थी कि चश्मा पहनूंगा तो रे-बैन का। शोरूम पर जाता था, तरह-तरह के चश्में लगाकर आईने में देखता था और क़ीमत देखकर वापस लौट आता था। हमेशा ही रे-बैन का चश्मा मेरे लिए बहुत मंहगा होता था। और मेरे लिए ही क्यों मेरे जैसे मध्यमवर्गीय आदमी के लिए रे-बैन मंहगा ही तो है। कभी पैसे होते भी थे तो रे-बैन के चश्मे की ख़रीदारी फ़िज़ूलखर्ची लगती। उससे भी ज़्यादा कई अहम काम सामने मुंह बाए खड़े होते। कभी चश्मे के लिए जमा पैसे LIC की किस्त में मिलाने पड़ते, कभी बीमारी-हारी में खर्च हो जाते, कभी कहीं तो कभी कहीं....। रे-बैन का चश्मा खरीदना हर बार मंहगा शौक़ मानकर ख़ारिज कर देना पड़ता था।
छोटी-मोटी कई ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया कि, नहीं इसके बिना भी काम चल जाएगा.... इस बार बारी रे-बैन की। लेकिन हर बार मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
ना जाने कब-कब और कहां-कहां उसकी कमी महसूस होती थी।
फिर वो दिन भी आया जब मैंने अपना पहला रे-बैन ख़रीदा। आज से कोई एक साल पहले। या शायद एक साल भी नहीं हुआ होगा उसे। सबसे पहले उसे घर लाया तो उसके चारों ओर सफ़ेद कागज़ लगा कर उसकी फ़ोटो खींची (वो फ़ोटो यहां लगा रहा हूं)। मेरा रे-बैन मेरे लिए बड़े शान की बात थी। किसी मुक़ाम की तरह ही संघर्षों से पाया था मैंने उसे। रोज़ नियम से उसकी देखभाल करना, ऑफ़िस जाते वक़्त करीने से उसे साफ करके पहनना और ऑफ़िस पहुंचकर सावधानी से उसे साफ़ करके केस में वापस रखना, कहीं लाते-ले जाते समय बच्चों की तरह उसकी फ़िक्र करना, रह-रहकर सबकुछ कई बार याद आ जाता है दिन में।
अब पता नहीं एक बार फिर कब तक ले पाऊंगा रे-बैन। लेकिन लूंगा ज़रूर। ज़िद का पक्का हूं मैं। और जब तक नहीं ले पाऊंगा तब तक क्या करूंगा....? तब तक मेरी एक मित्र का गिफ़्ट किया हुआ ‘Police’ का ग्ल्येर पहनूंगा। मेरे लिए खास UK से लाईं थीं वो। थैंक्स अनु।
रे-बैन का दूसरा चश्मा ले भी लूंगा तो पहले वाले को कभी नहीं भूल पाऊंगा। उसकी याद करके अब भी मन भारी है और रहेगा भी।
कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?
मेरे लिए वो सिर्फ एक चश्मा नहीं था। जब पहली बार 6290/- का ख़रीदकर मैंने उसे पहना था तो एक तरह से बरसों पुराना एक ख़्वाब मेरी आंखों के सामने तामीर हो चुका था। बरसों की ज़िद थी कि चश्मा पहनूंगा तो रे-बैन का। शोरूम पर जाता था, तरह-तरह के चश्में लगाकर आईने में देखता था और क़ीमत देखकर वापस लौट आता था। हमेशा ही रे-बैन का चश्मा मेरे लिए बहुत मंहगा होता था। और मेरे लिए ही क्यों मेरे जैसे मध्यमवर्गीय आदमी के लिए रे-बैन मंहगा ही तो है। कभी पैसे होते भी थे तो रे-बैन के चश्मे की ख़रीदारी फ़िज़ूलखर्ची लगती। उससे भी ज़्यादा कई अहम काम सामने मुंह बाए खड़े होते। कभी चश्मे के लिए जमा पैसे LIC की किस्त में मिलाने पड़ते, कभी बीमारी-हारी में खर्च हो जाते, कभी कहीं तो कभी कहीं....। रे-बैन का चश्मा खरीदना हर बार मंहगा शौक़ मानकर ख़ारिज कर देना पड़ता था।
छोटी-मोटी कई ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया कि, नहीं इसके बिना भी काम चल जाएगा.... इस बार बारी रे-बैन की। लेकिन हर बार मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
ना जाने कब-कब और कहां-कहां उसकी कमी महसूस होती थी।
फिर वो दिन भी आया जब मैंने अपना पहला रे-बैन ख़रीदा। आज से कोई एक साल पहले। या शायद एक साल भी नहीं हुआ होगा उसे। सबसे पहले उसे घर लाया तो उसके चारों ओर सफ़ेद कागज़ लगा कर उसकी फ़ोटो खींची (वो फ़ोटो यहां लगा रहा हूं)। मेरा रे-बैन मेरे लिए बड़े शान की बात थी। किसी मुक़ाम की तरह ही संघर्षों से पाया था मैंने उसे। रोज़ नियम से उसकी देखभाल करना, ऑफ़िस जाते वक़्त करीने से उसे साफ करके पहनना और ऑफ़िस पहुंचकर सावधानी से उसे साफ़ करके केस में वापस रखना, कहीं लाते-ले जाते समय बच्चों की तरह उसकी फ़िक्र करना, रह-रहकर सबकुछ कई बार याद आ जाता है दिन में।
अब पता नहीं एक बार फिर कब तक ले पाऊंगा रे-बैन। लेकिन लूंगा ज़रूर। ज़िद का पक्का हूं मैं। और जब तक नहीं ले पाऊंगा तब तक क्या करूंगा....? तब तक मेरी एक मित्र का गिफ़्ट किया हुआ ‘Police’ का ग्ल्येर पहनूंगा। मेरे लिए खास UK से लाईं थीं वो। थैंक्स अनु।
रे-बैन का दूसरा चश्मा ले भी लूंगा तो पहले वाले को कभी नहीं भूल पाऊंगा। उसकी याद करके अब भी मन भारी है और रहेगा भी।
कहां होगा मेरा ‘रे-बैन’…?
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