(दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 13-05-2012 को प्रकाशित)
आमिर के सत्यमेव जयते को लेकर फ़ेसबुक और ट्विटर पर ज़ोरदार प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई है। प्रतिक्रिया मिलीजुली है, कुछ लोगों को ये शो अभी से सार्थक लग रहा है जबकि कुछ देखने वालों को इसमें कुछ ऐसा नहीं मिला जिसकी इस शो के प्रोपेगैंडा से तुलना और अपेक्षा की गई थी। कहीं ये शो राष्ट्रीय मुद्दों को स्पेशल इफेक्ट्स से सजाकर तैयार की गई ईस्टमैनकलर फिल्म बनकर न रह जाए। कहीं ऐसा न हो कि न्यूज़ चैनलों पर ऐसी ख़बरों से बोर हो चुके लोग अब स्टार प्लस पर नए तामझाम के साथ अपने देश के ज्वलंत मुद्दों का फिल्मीकरण देखें, बस।
आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं इस शो को लेकर किसी भी तरह के पूर्वानुमान से ग्रसित नहीं हूं और न ही मैं आमिर और उनकी इस पहल का विरोधी ही हूं। मेरी चिंता बस इतनी सी है कि ये कोशिश बस लोगों की वाह-वाह तक सीमित न रह जाए। केवल चाय की चुसकियों के साथ इसकी तारीफ़ के अलावा भी लोग अपना योगदान दें, जिसकी संभावनाएं कम हैं। कई लोग कह सकते हैं कि आमिर के बहाने एक पहल हुई ये क्या कम है, लेकिन समझना ये होगा कि क्या वाकई किसी पहल को बहाने की ज़रूरत है और सबसे बड़ी बात ये कि आखिर कितनी बार सिर्फ पहल होकर दम तोड़ देगी। सामाजिक सरोकारों और ज्वलंत मुद्दों पर ये कोई पहला चर्चित शो नहीं है।
आमिर की इस शो में मौजूदगी जहां इस शो के लिए टीआरपी का फंडा सोची गई होगी वहीं यही शो का माइनस प्वॉइंट न बन जाए। सोचा गया होगा कि आमिर जब कहेंगे तो दुनिया सुनेगी, लेकिन सच ये है कि आमिर की उपस्थिति ने शो को फिल्मी कलेवर दे दिया है। अत्याधिक स्पेशल इफेक्ट्स में मुद्दे की गंभीरता, किरदार की स्वाभिकता, मौके की नाज़ुकता, स्थान की सजीवता और स्टोरी की आत्मा भी प्रभावित हुई है। सब नकली सा लगता है। फिल्मी लगता है। आमिर को ध्यान रखना चाहिए था कि वो ‘तारे ज़मी पर’ या ‘लगान’ का सीक्वल नहीं बना रहे हैं बल्कि देश के ज्वलंत मुद्दों को लेकर एक जनजागरण अभियान की मुहिम छेड़ रहे हैं। हां, बेशक़ आमिर का ये शो सामाजिक सरोकारों की जुड़ी पत्रकारिता को ग्लैमराइज़ करता है। लेकिन आमिर के बहाने लोगों के सिर्फ ध्यान आकर्षित करने को इसकी सफलता नहीं माना जा सकता। शो में ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया जा रहा जिसे लोग पहले से नहीं जानते थे। इसलिए ये सवाल बड़ा बन जाता है कि इसका ओवर ऑल इम्पैक्ट क्या होगा? आमिर की अभिनय क्षमता का एक और वाह-वाह करने वाला पहलू या आमिर के कंघों पर ‘रंग दे बंसती’ जैसी क्रांति का क्रेडिट?
आमिर बेहतरीन फ़िल्में देते हैं। उन्हे अगर अपने सामाजिक सरोकारों का हवाला ही देना था तो बेहतर होता वो ‘सत्यमेव जयते’ नाम से एक फ़िल्म ही बना देते। ऐसे तो वो न ठीक तरह से मुद्दों का फिल्मीकरण ही कर पाए और न ही अपने फिल्मी अनुभव का सामाजिक मुद्दों के साथ सामंजस्य ही बिठा पाए। मामला गड्डमड्ड हो गया। अखबार और न्यूज़ चैनलस् ऐसे तमाम मुद्दों की ख़बर दिखाकर भी गाली खाते हैं लेकिन आमिर की इसी काम के लिए पीठ थपथपाई जाएगी क्योंकि उनके शो में सब ‘गुडी-गुडी’ है। हैप्पी एंडिग है। न्यूज़ वाले शायद इसलिए गाली खाते हैं क्योंकि वो ‘विचलित कर देने’ वाली असली तस्वीरें दिखाते हैं, बिना स्पेशल इफेक्ट्स के साथ।
आमिर निराश न हों, उनका शो इतना होपलैस केस भी नहीं है। लोग तारीफ़ तो कर ही रहे हैं। लेकिन सवाल फिर वहीं की धमाका टीआरपी से शो की लोकप्रियता तो सुनिश्चित की जा सकती है लेकिन शो अपने मूल मकसद में कितना कामयाब हो पाएगा ये कहना बड़ा मुश्किल है। जहां किसी न्यूज़ चैनल का रिपोर्टर किसी भी ज्वलंत मुद्दे की रिपोर्टिंग करते हुए उस मुद्दे से जुड़े सवालों का जवाब संबंधित अधिकारी अथवा विभाग से लेने की ज़िद में थानों, चौकियों, जेलों, मंत्री निवासों और पीएमओ के बाहर भूखा-प्यासा डटा रहता है और अंततः जवाब लेकर ही दम लेता है, उन मुद्दों को लेकर आमिर इस शो के अंत में कहते हैं कि वो अमुक विषय से संबंधित अधिकारी को इस विषय में कार्यवाई करने के लिए चिट्ठी लिखेंगे। उनके इसी क्लोज़िंग नोट से शो की सार्थकता का आकलन किया जा सकता है। जहां दो अहम मुद्दों को लेकर अन्ना और रामदेव को सकड़ों पर निकलकर अनशन करके संघर्ष करना पड़ रहा है, वहां अगर आमिर की चिट्ठी काम कर जाए तो बात ही क्या है।
इससे पहले भी सामाजिक सरोकारों पर लोगों की सहानुभूति बटोरते ‘किरण की कचहरी’ टाइप कई शो हिट हो चुके हैं लेकिन नतीजा क्या निकला? क्या शो जिन समस्याओं पर आधारित रहे आज उन समस्याओं के ग्राफ़ में गिरावट आई? शायद नहीं। इसलिए कह रहा हूं कि आमिर कुछ बेहतर कर सकते थे। होना केवल ये है कि आज आमिर के शो के आलोचकों का मुंह पीटने वाले कल किसी और शो में बिज़ी हो जाएंगे और मूल समस्याएं मूल में ही रह जाएगीं। फिर आमिर की तरह कोई आकर उन पर नया शो बनाएगा। समस्याएं वही, शो वही, बस विज्ञापन बदलते रहेंगे।
निराशाजनक ये भी है कि बड़ी-बड़ी कंपनियां आमिर जैसे बड़े नामों के साथ जुड़कर अपने और शो के व्यवसायिक लाभ के लिए हमेशा तैयार रहती हैं लेकिन सामाज के फायदे के लिए कभी उन गैर सरकारी संस्थाओं के साथ नहीं आतीं जो सही मायनों में तमाम गंभीर समस्याओं को लेकर पीड़ितो के कंघे से कंघे मिलाकर संघर्ष कर रहे हैं। अब तो उम्मीद बस ये की जा सकती है कि जैसे लोगों को अपने सामान्य ज्ञान का लाभ नौकरियों के रूप में कम और ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में भाग लेकर हज़ारों और लाखों जीत कर ज़्यादा मिला वैसे ही आमिर के इस शो से किसी एक या दो पीड़ित परिवार को आमिर की वजह से तवज्जो मिल जाए। वरना जो मुद्दे ‘सत्यमेव जयते’ में उठाए जाने हैं उनसे समाज को पूरी तरह निजात दिलाने की दिशा में निस्वार्थ भाव और योगदान से अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। दुष्यंत का एक शे’र याद आ रहा है- ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’ आमिर का शो इसी दिशा में एक पहल बन पाए तो मैं अपने इस समालोचनात्मक आकलन के लिए माफी मांग लूंगा।
(दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 13-05-2012 को प्रकाशित)