Facebook पर रवीश कुमार जी का स्टेटस था- रावण के चरित्र में महानता के कोई लक्षण थे? क्यों लोग रावण से भी सहानुभूति रख लेते हैं? क्या किसी खलनायक के महान होने के लिए ज़रूरी है वो मारा भी जाए तो लोग आंसू बहाये।
इस पर मेरा कमेंट था-... रावण शायद इसलिए महान नहीं हो सका रवीश जी क्योंकि उसकी खलनायकी के अलावा कोई पक्ष उकेरा ही नहीं गया। हमने जन्म लेने के बाद अगर हनुमान जी के हाथ में बांसुरी देखी होती तो हम उन्हे उसी रूप में पूज रहे होते... केवल चोरी ही चोर के व्यक्तित्व का शेड नही होता... और फिर कालांतर में वही चोर रामायण लिखकर महान भी बन जाता है।
हमारी धार्मिक आस्थाएं बड़ी बेलगाम है साहब। अब क्या करें, राम और रावण को हमने जैसा पढ़ा उन्हे वैसा ही समझने लगे, मानने लगे और रावण का पुलता फूंक कर राम की पूजा करने लगे। मामला धर्म का था इसलिए पाप लेने के डर से किसी ने कोई विशलेषण भी नहीं किया। आज चोर, डकैत, अपहरणकर्ता और यहां तक कि आतंकवादी तक, पकड़े जाते हैं, सज़ा काटते हैं, उन्हे अपनी ग़लती का अहसास होता है और उनमें से कई काटने के बाद समाज की मुख्यधारा का हिस्सा तक बन जाते हैं। लेकिन poor man रावण, राम के हाथों मरने के बाद भी हर साल सोनिया गाधी से लेकर पप्पु, बंटी और बबलू के हाथों जलाकर मारा जाता है। कहते हैं बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है। सच बताना, जीत गई क्या अच्छाई?
सवाल रावण से सहानुभूति रखने का भी नहीं है। सवाल हमारी आस्था और अनास्था का है। इसी देश में जहां रावण को जलाया जाता है वहीं देश के कई हिस्सों में उसके ज्ञान स्वरूपों की पूजा भी होती है। ज़रा सोचिए तो सही कि अगर भगवान लोगों ने किंवदंतियों के आधार पर जो तब किया अगर वो आज करते तो क़ानून में उनके किए के लिए सज़ा का क्या प्रावधान होता? क्या भगवान शिव का अपने पुत्र की गर्दन धड़ से अलग करना और फिर एक बेगुनाह हाथी का सिर काट लेना अपराध की परधि में नहीं आता? क्या इंद्र का अपसराओं के साथ रास-लीला करना उस वक़्त की Rave Party नहीं होता होगा? क्या राम का बाली को छल से मारना और अपनी धर्मपत्नी सीता के साथ अन्याय करना न्यायसंगत ठहराया जा सकत है? उदाहरण और भी हो सकते हैं। अपराधी तो ये भी हुए, या फिर इसलिए नहीं हुए क्योंकि इन्होने देवकुल में जन्म लिया था, दैत्यकुल में नहीं। रावण तो दैत्यकुल से था, उससे खलनायकी के सिवाए उम्मीद भी क्या की जा सकती थी, लेकिन शिव, इंद्र और राम को खलनायकी की आवश्यकता क्यों कर पड़ गई? इस पर एक सार्थक बहस हो सकती है, लेकिन फिर कभी...।
चलिए, मैं कहता हूं कि रावण भी एक ब्लॉगर था, ब्लॉग लिखता था। आप मानेंगे क्या? नहीं मानेंगे ना। लेकिन अगर रामायण में ऐसा लिखा होता तो मान लेते। मान लेते ना। अरे बाप रे! ये मैंने क्या कह दिया, ऐसा होता तो हर विजयदशमी पर रावण के पुतलों के साथ हम ब्लॉगरों के पुतले भी फूंके जाते।
ये समाज भी बड़ा दिशाहीन है साहब। अपने विवेक से काम लेने और अपने पर विश्वास कायम करने की हिम्मत ही नहीं है लोगों में। किसी और के इशारों पर नाचना सहर्ष मंज़ूर है। यहां बाबा रामदेव के भी अनुयायी हैं, श्रीश्री रविशंकर के भी, संत आसाराम के भी और स्वामी नित्यानंद और भीमानंद के भी।
तो सवाल सहानुभूति का नहीं, आस्था का है, विश्वास का है। नटवरलाल हमारे देश के लिए अपराधी था और रहेगा। जबकि अमेरिका ने कहा था कि नटवरलाल जैसे दिमाग देश की तरक्क़ी में लगाए जाने चाहिए। अब आप रावण की तरह नटवरलाल के पुतले फूंकिए या उसे सौ साल की सज़ा दीजिए। अमेरिका में होता तो क्या शान होती अगले की।
मैं कोई रावण का भक्त नहीं हूं लेकिन मैं राम से भी सहमत नहीं हूं।