सालों बाद कोई कविता लिखी थी... यही कोई दस साल बाद... मन के दर्द सहते विचार उद्धेलित होकर जमा हो गए थे, उन्ही के बिखराव को शायद कविता कहने की यह भूल भी हो सकती है...आज इसे लिखे जाने के तीन साल बाद पढ़ा तो कुछ लाइनें और उभर आईं...
कविता कह लीजिए या कुछ और..., जो भी है, प्रस्तुत है-
कविता कह लीजिए या कुछ और..., जो भी है, प्रस्तुत है-
मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।।
जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब कर्ज़ कई, अब मर्ज़ कई,
संग उम्र के बढ़ते फ़र्ज़ कई,
जीवन धुन, तानें बिगड़ गईं,
एक मुखड़े की हैं तर्ज़ कई,
जब अपनी धुन में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!
जब पांव धरा पर रहता था।।
जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
आने को कहकर चली गई,
फिर न आई वो, चली गई,
मैंने सोचा मैं छला गया,
वो समझी कि वो छली गई,
जब विरह अकेला सहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
अब कर्ज़ कई, अब मर्ज़ कई,
संग उम्र के बढ़ते फ़र्ज़ कई,
जीवन धुन, तानें बिगड़ गईं,
एक मुखड़े की हैं तर्ज़ कई,
जब अपनी धुन में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
जब पांव धरा पर रहता था।
मैं भी तो कविता कहता था!!!!
14 comments:
अनुराग भाई बहुत ही अच्छी कविता है। बस लिखते रहें। शुभकामनाएं।
bahut sunder...bahut safgoi se apni kahi hai aapne...waah!! jeevan ki aapadhapi main samay ki killat hai fir bhi jab waqt mile paper per rang jaroor bikheriye.....
वाह!! बहुत खूब...मौका आता रहेगा..कविता कहते रहियेगा...
बहुत ही बढ़िया कविता है। बधाई।
अब कर्ज़ कई, अब मर्ज़ कई,
संग उम्र के बढ़ते फ़र्ज़ कई,
जीवन धुन तानें बिगड़ गईं,
एक मुखड़े की हैं तर्ज़ कई
वाह अनुराग भाई.... वाह...
बहुत ही सुंदर कविता है भाईसाहब...जीवन की आपाधापी मे वो पुरानी बाते तो एकदम दूर होती जाती है ....पर मेी ईश्वर से प्रार्थना है की आप इसी तरह सुंदर सुंदर साहित्य का स्रजन करते रहे...!!
बहुत बढ़िया, अनुराग भाई, बहुत बढ़िया !
जब शीत पवन सहलाती थी,
जब घटा मुझे फुसलाती थी,
बारिश आकर नहलाती थी,
कागज की नाव बुलाती थी,
जब संग नदी के बहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।
लाजवाब...
शुक्र है... आप कविता की दुनिया में वापस तो आए...
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anurag jee jabardast likha he....jada nai janta par.....prerna ke liye kaafi he...
badhiya anuraag jee...jada nai janta ..par likhne ki prerna ke liye kaafi he...
anurag ji kavita achchi lagi. lekhan jari rakhiye.....
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अब धुन है रुपयों-पैसों की,
सुनता हूं कैसे-कैसों की,
बेसुध से मेरे जैसों की,
कब कद्र है ऐसे-वैसों की,
जब अपनी सुध में रहता था,
मैं भी तो कविता कहता था।........बहुत सुंदर बहुत बढिया ... मेरे पास दयाराम जैसे शब्द ही नही है जिनमे वो मौलिकता हो जो आपके बारे में कुछ कहूँ....इसलिए आपकी ही लिखी कुछ लाइने यहाँ दोहरा रही हूँ......सादर
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