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Friday, May 21, 2010

काश...!

काश! मेरा भी कोई रिमोट कंट्रोल या ऑन-ऑफ बटन होता...

रात के डेढ़ बज रहे हैं। सोने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं। कमरे में सिर्फ नाइट बल्ब जल रहा है। नाइट बल्ब की रोशनी में उसके चारों तरफ की दीवार के सिवाए तीन नंबर पर चलता हुआ सीलिंग फैन दिखाई दे रहा है। सोच रहा हूं इंसान क्यों हुआ, पंखा क्यों नहीं। बटन से चलता, बटन से रुकता। बटन से ही धीमा और तेज होता। इंसान हूं। बटन की बजाए मन से चलना पसंद करता हूं। यही रात के इस वक्त तक जागने की वजह भी है शायद। रात के इस सन्नाटे को इससे पहले भी महसूस किया है लेकिन इतनी शिद्दत से पहली बार महसूस कर रहा हूं। पहले ऐसे सन्नाटे में दिल की धड़कने और सांसों की आवाज सुनाई देती थी। नाइट बल्ब तब भी जलता था, सीलिंग फैन तब भी चलता था। लेकिन आज दिल की धड़कनों और सासों की आवाज से ज्यादा सीलिंग फैन की आवाज और उससे कटने वाली हवा की सांय-सांय सुनाई दे रही है। मेरी धड़कन की आवाज में और भी आवाजें जुड़ गई हैं, फिर इतना सन्नाटा क्यूं है?

मैं बहुत खुश होता। मैं बहुत सुखी होता अगर मेरा भी कोई रिमोट कंट्रोल या ऑन-ऑफ बटन होता। सीलिंग फैन के बारे में सोच रहा हूं। जाड़े के महीनों में आराम तो मिलता है इसे। मेरे आराम का कोई मौसम नहीं। न मौसम, न बटन। क्या यही खालीपन खल रहा है। कमरे के नीले लाइट बल्ब और आसमान के नीलेपन की रिक्तता में कितनी समानता लग रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कमरे में नीला आसमान पसर गया हो। लेकिन जानता हूं कि आसमान आकार में मेरे कमरे के नीले रंग से कहीं व्यापक है, फैला हुआ है। भले ही उसका खालीपन मेरे कमरे के खालीपन से ज्यादा विस्तार लिए हुए नहीं है। रात के आसमान के नीले कैनवास पर आधे चांद और पूरे सितारों की एक खूबसूरत पेंटिंग बनी है। कमरे के आसमान पर उखड़े और सीले हुए पलास्तर के सिवा उपर रहने वाले मकान मालिक की चहलकदमी की खटपट के सिवा कुछ नहीं। सुबह शेव करते समय ख़ुद से ही जिंदगी से जुड़े कई सवाल पूछता हूं। सवाल शेव के फोमयुक्त झाग की तरह फैलते जाते हैं। गुणा होते जाते हैं। जवाब भी मिलता है तो एक नए सवाल की शक्ल में। अकसर सवाल यह कि कौन हूं मैं, कहां से आया हूं? क्यों आया हूं? कहां जाना है? कहां जा रहा हूं?

इस एक बार मिले जीवन को किसी और की मर्जी से सहर्ष(?) जी रहा हूं। क्यों? अपनी इच्छा से नहीं जी रहा। क्यों? शिकायत भी नहीं करता। क्यों? ना दूसरे की मर्जी से जीवन जीकर खुश हूं ना अपना मर्जी से ना जीकर। अगर मैं जीवन के सर्कस में जोकर भी हूं तो मेरा कोई एक रिंगमास्टर क्यों नहीं है। बहुत सारे क्यों हैं? मैं खुद पर पूरा यकीन करता हूं, लेकिन मुझपर हर कोई यक़ीन नहीं करता। ऐसा क्यों?

ज़िंदगी को समझने के फेर में जिंदगी को जीना ही भूल बैठा, जिंदगी को भरपूर जी लेता तो शायद वो समझ में ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाती। अब बहुत कंफ्यूज़ हूं। है कोई हल...?

6 comments:

Anonymous said...

a

Anonymous said...

HHHHMMM..........sahi kaha sir ji aapne kaash!!!!!!!! mein ek button hota. :)

कविता रावत said...

ज़िंदगी को समझने के फेर में जिंदगी को जीना ही भूल बैठा, जिंदगी को भरपूर जी लेता तो शायद वो समझ में ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाती। अब बहुत कंफ्यूज़ हूं। है कोई हल...?
.....जिंदगी ऐसे मोड़ों से भी गुजरती हैं जिसकी कोई खबर इंसान का नहीं होती ....और वह यूँ से बहुत कुछ सीखता चला जाता है .....बढ़ता चला जाता है ..
सार्थक लेखन ...
बहुत शुभकामनाएँ

Unknown said...

बेहतरीन वैचारिक प्रस्तुति

दिलीप said...

achcha aalekh...

फ़िरदौस ख़ान said...

अरसे बाद ब्लॉग पर आपका लेख देख कर अच्छा लगा...
इसे बरक़रार रखिएगा... शुभकामनाएं...