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Monday, May 24, 2010

'जब पप्पू के बापू श्यामलाल से मिले भगवान शंकर'

'जब पप्पू के बापू श्यामलाल से मिले भगवान शंकर'

एक सूखा ग्रस्त गांव था। ये उस गांव के दो बेचारे किसानों की कहानी है, रामलाल और श्यामलाल। दोनों अभागे सूखे की मार से त्रस्त थे। तीन सालों से आसमान एक बूंद नहीं टपका था। जी हां, बिलकुल फ़िल्म लगान के चंपारन गांव की सी कहानी थी। कहीं से उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आ रही थी। खेत और पेट दोनों सूख चुके थे। अब तो बस भगवान का ही आसरा था। लेकिन एक समस्या थी, रामलाल जहां घोर आस्तिक किस्म था वहीं पट्ठा श्यामलाल विकट नास्तिक। रामलाल का भरोसा धर्म पर तो श्यामलाल भाग्य भरोसे।

तो आगे हुआ ये कि भईए, किसान रामलाल ने तो अपने खेत में शिव जी का एक मंदिर बनाया और पिल पड़ा पूजा पाठ में। उधर श्यामलाल की महरारू यानि घरवाली ये जानती थी कि पप्पू के बापू यानि श्यामलाल पूजापाठ तो करेंगे नहीं, फिर भी अभागी ने शंकर जी की एक छोटी सी मूर्ति तो लगा ही खेत के बीचों बीच। और ख़ुद घर में पूजा अर्चना शुरू कर दी। अब रोज़ होता ये था कि रामलाल तो बर्ह्म महूर्त से रात्रिकाल के अंतिम पहर तक शिव चालीसा का पाठ करते नहीं थकता और उधर श्यामलाल बर्ह्म महूर्त से रात्रिकाल के अंतिम पहर तक सूखे खेत में गड़े शिवशंकर की मूर्ति को गालियां बकता। वो बिना बात अक्सर भड़क उठता, शिव शंकर को भद्दी गालियां देता, एक बार मिल लेने पर देख लेने की धमकियां देता। थूकता, लतियाता और शिव जी में कीड़े पड़ने की बददुआ देता। मूर्ति हटाने की हिम्मत तो थी नहीं श्यामलाल की, घरआली ने जो लगाई थी। खैर साहब, दो साल तक ऐसा ही चलता रहा.... बस, ऐसा ही चलता रहा। एक खेत में पूजापाठ और दूजे में गाली-गलौज।

अब बारी ऊपर पार्वती के साथ बर्फ़ीले कैलाश पर्वत पर विराजे शिव शंकर की थी। पार्वती से बोले- ‘सुनो प्रिये, हम ज़रा अभी आते हैं। एक भक्त बड़ी श्रद्धा से हमारी वंदना करता है, उसे वरदान देकर आते हैं।’ शिव शंकर प्रकट हो गए श्यामलाल के सामने। वही श्यामलाल जो शिव शंकर को खरी-खोटी सुनाता था। बोले- ‘हम प्रसन्न हुए बच्चा, मांग क्या मांगता है?’ श्यामलाल भिन्नौट हो गया, भड़क उठा। चिल्लाया- ‘भाग जा शिवशंकर के बच्चे, वरना खैर नहीं तेरी... साल्ले इसी हल से ज़मीन में गाड़ दूंगा... मेरी दिल से निकली बददुआ लगेगी तुझे, देखना कीड़े पड़ेगें तुझमें... तमाशा देखने आया है हमारा... हमें कुछ नहीं चाहिए... जा भाग जा यहां से।’ शिवजी मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए ‘तथास्तु’ कह कर कट लिए। उनके अंतर्ध्यान होते ही श्यामलाल के खेत से सोने की अशर्फियां निकलने लगीं। श्यामलाल के दिन बहुर गए।

शिवजी कैलाश वापस लौटे तो पार्वती जी माथा पकड़े बैठी थीं। बोलीं- ‘धत्त तेरे की, ई धतूरे की पिनक में ये क्या कर आए प्रभु, ग़लत आदमी को वरदान दे दिया, मेरा तो कब से माथा ख़राब है... रामलाल और श्यामलाल में टोटल कंफ्यूज़ कर गए आप... जो गाली बकता था उसकी लाइफ़ सेट कर दीस।’ शिवशंकर मुस्कुराए, बोले- ‘नहीं प्रिया, हम कतई कंफ्यूज़ नहीं हैं... हमने सही आदमी को वरदान दिया है... रामलाल हमारा नाम लालच और स्वार्थ के चलते लेता है, लेकिन श्यामलाल निस्वार्थ भाव से हमारा नाम लेता है... गालियों के साथ ही सही लेकिन पूरे मन, कर्म और वचन के साथ हमरा नाम लेता है। हमारा सच्चा भक्त तो श्यामलाल ठहरा। इसलिए हम उससे प्रसन्न हुए। समझी....?’

‘आप तो एकदम से ग्रेट हैं जी।’, पार्वती जी इतराते हुए बोलीं।

मॉरल ऑफ़ द स्टोरी- जो तुम्हे बेनागा गालियां बकता है... वो तुम्हारा दुश्मन नहीं बल्कि वो तो तुम्हारा सच्चा भक्त है। उसे गाली के बदले गाली नहीं, वरदान दो वरदान। अमां अब तो अपने सच्चे भक्तों के पहचानना सीखो। मैं भी आजकल अपने सच्चे भक्तों को चिन्हित कर रहा हूं। मित्रों.... उन्हे वरदान जो देना है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया!

फ़िरदौस ख़ान said...

शानदार...
अरसे बाद ब्लॉग पर आपका लेख देख कर अच्छा लगा...
इसे बरक़रार रखिएगा... शुभकामनाएं...